संभोग से समाधि की ओर—8
संभोग : अहं-शून्यता की झलक—4
लेकिन वह बहुत महंगा अनुभव है, वह अति महंगा अनुभव है। और दूसरा कारण है कि वह अनुभव से ही अपलब्ध हुआ है। एक क्षण से ज्यादा गहरा नहीं हो सकता है। एक क्षण को झलक मिलेगी और हम वापस अपनी जगह लोट आयेंगे। एक क्षण को किसी लोक में उठ जाते है। किसी गहराई पर, किसी पीक एक्सापिरियंस पर, किसी शिखर पर पहुंचना होता है। और हम पहुंच भी नहीं पाते और वापस गिर जाते है। जैसे समुद्र की लहर आकाश में उठती है, उठ भी नहीं पाती है, पहुंच भी नहीं पाती है, और गिरना शुरू हो जाती है।
ठीक हमारा सेक्स का अनुभव—बार-बार शक्ति को इक्ट्ठा करके हम उठने की चेष्टा करते है। किसी गहरे जगत में, किसी ऊंचे जगत में एक क्षण को हम उठ भी नहीं पाते और सब लहरें बिखर जाती है। हम वापस अपनी जगह खड़े हो जाते है। और उतनी शक्ति और ऊर्जा को गंवा देते है।
लेकिन अगर सागर की लहर बर्फ का पत्थर बन जाये और बर्फ हो जाये तो फिर उसे नीचे गिरने की कोई जरूरत नहीं है। आदमी का चित जब तक सेक्स की तरलता में बहता है, तब तक वापस उठता है, गिरता है। उठता है, गिरता है, सारा जीवन यही कहता है।
और जिस अनुभव के लिए इतना आकर्षण है—इगोलेसनेस के लिए—अहंकार शून्य हो जाये, मैं आत्मा को जान लूं। समय मिट जाये और मैं उसको जान लूं। जो इंटरनल है, जो टाइम लेस है। उसको जान लूं। जो समय के बाहर है, अनंत और अनादि है। उसे जानने की चेष्टा में सारा जगत सेक्स के केंद्र पर घूम रहा है।
लेकिन अगर हम इस घटना के विरोध में खड़े हो जायें सिर्फ, तो क्या होगा? तो क्या हम उस अनुभव को पा लेंगे जो सेक्स से एक झलक की तरह दिखाई पड़ता था? नहीं, अगर हम सेक्स के विरोध में खड़े हो जाते है तो सेक्स ही हमारी चेतना को केंद्र बन जाता है, हम सेक्स से मुक्त नहीं हो सकते है। और उस से बंध जाते है। वह लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट काम शुरू कर देता है। फिर हम उससे बंध गये। फिर हमने भोगने की कोशिश करते है। और जितनी हम कोशिश करते है, उतने ही बँधते चले जाते है।
एक आदमी बीमार था और बीमारी कुछ उसे ऐसी थी कि दिन रात उसे भूख लगता थी। सच तो यह है कि उसे बीमारी कुछ भी नहीं थी। भोजन के संबंध में उसने कुछ विरोध की किताबें पढ़ ली थी। उसने पढ़ लिया था कि भोजन पाप है। उपवास पुण्य है। कुछ भी खाना हिंसा है। जितना वह यह सोचने लगा कि भोजन करना पाप है, उतना ही भूख को दबाने लगा। जितना भूख को दबाने लगा, भूख असर्ट करने लगी। जो से प्रकट होने लगी। तो वह दो चार दिन उपवास करता था और एक दिन पागल की तरह से कुछ भी खा जाता था। जब कुछ भी खा लेता था तो बहुत दुख होता था। क्योंकि फिर खाने की तकलीफ झेलनी पड़ती थी। फिर पश्चाताप में दो-चार दिन उपवास करता था। और फिर कुछ भी खा लेता था। आखिर उसने तय किया कि यह घर रहते हुए न हो सकेगा ठीक मुझे जंगल चल जान चाहिए।
वह पहाड़ पर गया। एक हिल स्टेशन पर जाकर एक कमरे में रहा। घर के लोग भी परेशान हो गये। उसकी पत्नी ने यह सोच कर की शायद वह पहाड़ पर अब जाकर भोजन की बीमारियों से मुक्त हो जायेगा। उसने बहुत से फूल पहाड़ पर भिजवाये। और कहलवाया कि मैं बहुत खुश हूं कि तुम शायद पहाड़ से स्वस्थ होकर लौटोगे। मैं शुभ कामना के रूप में ये फूल भेज रही हूं।
उस आदमी का वापस तार आय। तार में लिख था—‘’मेनी थैंक्स फॉर दी फ्लावर्स, दे आर सो डैलिसियस’’ उसने तार किया कि बहुत धन्यवाद फूलों के लिए, बड़े स्वादिष्ट है। वह फूलों को खा गया, वहां पहाड़ पर जो फूल उसको भेजे गये थे। अब कोई आदमी भोजन से लड़ाई शुरू कर देगा। वह फूलों को खा सकता है।
आदमी सेक्स से लड़ाई शुरू किया ओर उसने क्या-क्या सेक्स के नाम पर खाया,इसका आपने कभी हिसाब लगाया? आदमी को छोड़ कर, सभ्य आदमी को छोड़ कर, होमोसेक्सुअलिटी कहीं है? जंगल में आदिवासी रहते है,उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की कि होमोसेक्सुअलिटी भी कोई चीज होती है। कि पुरूष और के साथ संभोग कर सकता है। ये सब कल्पना के बहार की बात है। मैं आदि वासियों के पास रहा हूं, मैंने कहां की सभ्य लोग इस तरह भी करते है, वे कहने लगे हमारे विश्वास के बहार की बात है। यह कैसे हो सकता है?
लेकिन अमेरिका में उन्होंने आंकड़े निकाले है—पैंतीस प्रतिशत लोग होमोसेक्सुअल है। और बेल्जियम और स्वीडन और हॉलैंड में होमोसेक्सुअल के क्लब हे, सोसाइटी है, अख़बार निकलते है और सरकार से यह दावा करते है कि होमोसेक्सुअलिटी के ऊपर से कानून उठा दिया जाना चाहिए। हम तो यह मानते है होमोसेक्सुअलिटी ठीक है। इसलिए हमको हक मिलना चाहिए। कोई कल्पना नहीं कर सकता कि यह होमोसेक्सुअलिटी कैसे पैदा हो गई। सेक्स के बाबत लड़ाई का यह परिणाम है।
जिन सभ्य समाज है, उतनी वेश्याएं है। कभी आपने सोचा कि वेश्याएं कैसे पैदा हो गयी? किसी आदिवासी गांव में जाकर वेश्या खोज सकते हे आप। आज भी बस्तर के गांव में वेश्या खोजनी मुश्किल है। और कोई कल्पना में भी मानने को राज़ी नहीं होगा कि स्त्रीयां ऐसी भी हो सकती है। जो अपनी इज्जत बेचती हो। अपना संभोग बेचती हो। लेकिन सभ्य आदमी जितना सभ्य होता चला गया। उतनी वेश्याएं बढ़ती चली गयी—क्यों?
यह फूलों को खाने की कोशिश शुरू हुई है। और आदमी की जिंदगी में कितने विकृत रूप से सेक्स ने जगह बनायी है, इसका अगर हम हिसाब लगाने चलेंगे तो हैरान रह जायेंगे कि आदमी को क्या हुआ है? इसका जिम्मा किस पर, किन लोगों पर।
इसका जिम्मा उन लोगों पर है, जिन्होंने आदमी को—सेक्स को समझना नहीं लड़ना सिखाया। जिन्होंने सप्रेशन सिखाया है, जिन्होंने दमन सिखाया हे। दमन के कारण सेक्स की शक्ति जगह-जगह से फूट कर गलत रास्तों से बहनी शुरू हो गयी है। हमारा सारा समाज रूग्ण और पीड़ित हो गया है। इस रूग्ण समाज को अगर बदलना है तो हमें यह स्वीकार कर लेना होगा कि कास का आकर्षण है।
क्यों है काम का आकर्षण?
काम के आकर्षण का जो बुनियादी आधार है, उस आधार को अगर हम पकड़ लें तो मनुष्य को हम काम के जगत से उपर उठा सकते है। और मनुष्य निश्चित काम के जगत से ऊपर उठ जाये, तो ही राम का जगत शुरू होता है।
खजुराहो के मंदिरों के सामने मैं खड़ा था। दस-पाँच मित्रों को लेकर मैं वहां गया था। खजुराहो के मंदिर के चारों तरफ की दीवाल पर जो मैथुन चित्र है, काम-वासनाओं की मूर्तियां है। मेरे मित्र कहने लगे कि मंदिर के चारों तरफ यह क्या है ?
मैंने उनसे कहा, जिन्होंने यह मंदिर बनाये थे वे बड़े समझदार थे। उनकी मान्यता थी कि जीवन की बाहर की परिधि पर काम है। और जो लोग अभी काम से उलझे है, उनको मंदिर में भीतर प्रवेश का कोई हक नहीं है।
फिर मैंने अपने मित्र से कहा भीतर चलें, फिर उन्हें भीतर लेकर गया। वहां तो कोई काम प्रतिमा न थी। वहां भगवान की मूर्ति थी। वे कहने लगे कि भीतर कोई प्रतिमा नहीं है। मैंने उनसे कहां कि जीवन की बाहर की परिधि काम वासना है। जीवन की बाहर की परिधि दीवाल पर काम-वासना है। जीवन के भीतर भगवान का मंदिर हे। लेकिन जो अभी कामवासना में उलझे है, वे भगवान के मंदिर में प्रवेश के अधिकारी नहीं हो सकते है। उन्हें अभी बहार की दिवाल का ही चक्कर लगाना पड़ेगा।
जिन लोगों ने ये मंदिर बनवाया था, वे बड़े समझदार थे। यह मंदिर एक ‘’मेडिटेशन मंदिर’’ था। यह मंदिर एक ध्यान का केंद्र था। जो लोग आते थे, उनसे वे कहते थे। बाहर पहले मैथुन के ऊपर ध्यान करो, पहले सेक्स को समझो और जब सेक्स को पूरी तरह समझ जाओ और तुम पाओ कि मन उससे मुक्त हो गया है, तब तुम भीतर आ जाना। फिर भीतर भगवान से मिलना हो सकता है।
लेकिन धर्म के नाम पर हमने सेक्स को समझने की स्थिति पैदा नहीं की,सेक्स की शत्रुता पैदा कर दी। सेक्स को समझो मत,आँख बंद कर लो और घुस जाओ भगवान के मंदिर में आँख बद करके। आँख बंद करके कभी कोई भगवान के मंदिर में जा सका है। और आँख बंद करके अगर आप भगवान के मंदिर में पहुंच भी गये तो बंद आँख में आपको भगवान दिखाई नहीं पड़ेंगे। जिससे आप भागकर आये है। वही दिखायी पड़ता रहेगा। आप उसी से बंधे रह जायेंगे।
शायद कुछ लोग मेरी बातें सुनकर समझते है कि मैं सेक्स का पक्षपाती हूं। मेरी उसका कारण शायद लोग समझते है कि मैं सेक्स का प्रचार कर रहा हूं। अगर कोई ऐसा समझता हो तो उसने मुझे कभी सूना ही नहीं है,ऐसा उससे कह देना।
इस समय पृथ्वी पर मुझसे ज्यादा सेक्स का दुश्मन आदमी खोजना मुश्किल है। और उसका कारण यह है कि मैं जो बात कह रहा हूं, अगर वह समझी जा सकी तो मनुष्य जाति को सेक्स से उपर उठाया जा सकता है। अन्यथा नहीं।
और जिन थोथे लोगों को हमने समझा है कि वे सेक्स के दुश्मन थे। वे सेक्स के दुश्मन नहीं थे। उन्होंने सेक्स में आकर्षण पैदा कर दिया है। सेक्स से मुक्ति पैदा नहीं की। सैक्स से आकर्षण पैदा हो गया है, विरोध के कारण।
मुझसे एक आदमी ने कहा कि जिस चीज का विरोध न हो, उसके करने में कोई रस नहीं रह जाता है। चोरी के फल खाने में जितने मधुर और मीठे होते है। उतने बाजार से खरीदे गये फल कभी नहीं होते। इसीलिए अपनी पत्नी उतनी मधुर कभी नहीं मालूम पड़ती, जितनी पड़ोसी की पत्नी मालूम पड़ती है। वे चोरी के फल है, वे वर्जित फल है। और सेक्स को हमने एक ऐसी स्थिति दे दी, एक ऐसा चोरी का जामा पहना दिया, एक ऐसे झूठ के लिबास में छिपा दिया,ऐसी दीवालों में खड़ा कर दिया कि उसने हमें तीव्र रूप से आकर्षित कर लिया है।
बर्ट्रेन्ड रसल ने लिखा है कि जब मैं छोटा बच्चा था। विक्टोरिया का जमाना था। स्त्रियों के पैर भी दिखायी नहीं पड़ते थे। वे कपड़ा पहनती थी। जो जमीन पर घिसटता था और पैर नहीं दिखायी देते थे। अगर कभी किसी स्त्री का अंगूठा दिख जाता था तो आदमी आतुर होकर अंगूठा देखने लगता था। और काम वासना जग जाती थी। और रसल कहता है कि अब स्त्रीयां करीब-करीब आधी नंगा घूम रही है। और उसका पैर पूरा दिखाई पड़ रहा है। लेकिन कोई असर नहीं होता। तो रसल ने लिखा हे कि इससे यह सिद्ध होता है कि हम जिन चीजों को जितना ज्यादा छिपाते है,उन चीजों में उतना ही कुत्सित आकर्षण पैदा होता है।
अगर दुनिया को सेक्स से मुक्त करना है, तो बच्चों को ज्यादा देर घर में नग्न रहने की सुविधा होनी चाहिए। जब तक बच्चे घर में नग्न खेल सकें—लड़के और लड़कियां—उन्हें नग्न खेलने देना चाहिए। ताकि वह एक दूसरे के शरीर से भली भांति परिचित हो जाये। कर रास्तों पर उनको किसी स्त्री को धक्का देने की जरूरत नही पड़े। ताकि वह एक दूसरे के शरीर से इतने परिचित हो जायें। कि किसी किताब पर नंगी औरत की तस्वीर छापने की कोई जरूरत न रह जाये। वे शरीर से इतने परिचित हो जायें कि शरीर का कुत्सित आकर्षण विलीन हो जाये।
बड़ी उलटी दुनियां है। जिन लोगों ने शरीर को ढाँक कर, छिपाकर, खड़ा कर दिया है। उन्हीं लोगों ने शरीर को इतना आकर्षित
बच्चे नग्न होने चाहिए। देर तक नग्न खेलने चाहिए। लड़के और लड़कियां—एक दूसरे को नग्नता में देखना चाहिए, ताकि उनके पीछे कोई भी पागलपन न रह जाये। और उसके इस पागलपन का जीवन भर रोग उनके भीतर न चलता रहे। लेकिन वह रोग चल रहा है और उस रोग को हम बढ़ाये चले जा रहे है। उस रोग के फिर हम नये-नये रास्ते खोजते है।
गंदी किताबें छपती है। जो लोग गीता के कवर में भी भीतर रखकर पढ़ते है। बाइबिल में दबा लेते है। और पढ़ते है। ये गंदी किताबें है। तो हम कहते है कि गंदी किताबें बंद होनी चाहिए। लेकिन हम कभी नहीं पूछते कि गंदी किताबें पढ़ने वाला आदमी पैदा क्यों हो गया है? हम कहते है नंगी तस्वीरें दीवालों पर नहीं लगनी चाहिए। लेकिन हम कभी नहीं पूछते कि नंगी तस्वीरें कौन आदमी देखने को आता है?
वही आदमी आता है जो स्त्रीयों के शरीर को देखने से वंचित रह गया है। एक कुतूहल जाग गया है। क्या है स्त्री का शरीर।
और मैं आपसे कहता हूं वस्त्रों ने स्त्री के शरीर को जितना सुंदर बना दिया है। उतना सुंदर स्त्री का शरीर है नहीं। वस्त्रों में ढाँक कर शरीर छिपा नहीं है। और उधड़ कर प्रगट हुआ हे। ये सारी की सारी चिंतना हमारी विपरीत फल ले आयी हे। इसलिए आज एक बात आपसे कहना चाहता हूं पहले दिन की चर्चा में वह यह—सेक्स क्या है?उसका आकर्षण क्यों है? उसकी विकृति क्यों पैदा हुई? अगर हम ये तीन बातें ठीक से समझ लें तो मनुष्य का मन इनके ऊपर उठ सकता है। उठना चाहिए। उठने की जरूरत है।
लेकिन उठने की चेष्टा गलत परिणाम लायी है। क्यों कि हमनें लड़ाई खड़ी की है। हमने मैत्री खड़ी नहीं की है। दुश्मनी खड़ी की है। सप्रेशन खड़ा नहीं किया, दमन किया है। समझ पैदा नहीं की।
अंडरस्टैंडिंग चाहिए, सप्रेशन नहीं।
समझ चाहिए। जितनी गहरी समझ होगी मनुष्य उतना ही ऊपर उठता है। जितनी कम समझ होगी, उतना ही मनुष्य दबाने की कोशिश करता है। और दबाने के कभी सफल परिणाम,स्वस्थ परिणाम उपलब्ध नहीं होते। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी ऊर्जा है काम। लेकिन काम पर रूक जाना है। काम को राम तक ले जाना है।
सेक्स को समझना है, ताकि ब्रह्मचर्य फलित हो सके। सेक्स को जानना है, ताकि हम सेक्स से मुक्त हो सके। और ऊपर उठ सकें। लेकिन शायद ही आदमी.....जीवन भर अनुभव से गुजरता है। शायद ही उसने समझने की कोशिश की हो कि संभोग के भीतर समाधि का क्षण भी का अनुभव हे। वही अनुभव खींच रहा है। वही अनुभव आकर्षित कर रहा हे। वही अनुभव प्रकार रहा है। आओ ध्यानपूर्वक इस अनुभव को जान लेना है कि कौन सा अनुभव मुझे आकर्षित कर रहा है। कौन मुझे खींच रहा है।
और मैं आपसे कहता हूं उस अनुभव को पाने के सुगम रास्ते है। ध्यान, योग, सामायिक, प्रार्थना—सब उस अनुभव को पाने के मार्ग है। लेकिन वही अनुभव हमें आकर्षित कर रहा है। यह सोच लेना जान लेना जरूरी है।
एक मित्र ने मुझे लिखा—क्या आपने ऐसी बातें कहीं—कि मां के साथ बेटी बैठी थी, वह सुन रही है। बाप के साथ बेटी बैठी सुन रही है। ऐसी बातें सब के सामने नहीं कहनी चाहिए। मैंने उनसे कहा, आप बिलकुल पागल है। अगर मां समझदार होगी, तो उसके पहले कि बेटी सेक्स की दुनिया में उतर जाये, उसे सेक्स के संबंध में अपने अनुभव समझा देगी। ताकि वह अंजान अधकच्चा, अपरिपक्व सेक्स के गलत रास्तों पर न चली जाये। अगर बात योग्य है और समझदार है। तो आपने बेटे को अपने सारे अनुभव बता देगा। ताकि बेटे और बेटियाँ गलत रास्ते पर न चल सके। जीवन उनका विकृत न हो जाये।
लेकिन मजा यह है कि न बाप को कोई गहरा अनुभव है, न मां का कोई गहरा अनुभव हे। वे खुद भी सेक्स के तल से ऊपर नहीं उठ सके। इसलिए घबराते है कि कहीं सेक्स की बात सुनकर बच्चे भी इसी तल में न उलझ जायें।
लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि आप किसकी बात सुनकर उलझे थे। आप अपने आप उलझ गये थे। बच्चे भी अपने आप उलझ जायेंगे। यह हो भी सकता है कि अगर उन्हें समझ दी जाये विचार दिया जाये,बोध दिया जाये। तो वह अपनी उर्जा को व्यर्थ करने से बच जाये। उर्जा को बचा सके, रूपांतरित कर सकें।
रास्तों के किनारे पर कोयले का ढेर लगा होता है। वैज्ञानिक कहते है कि कोयला ही हजारों साल में हीरा बन जाता है। कोयले और हीरे में कोई रासायनिक फर्क नहीं है। कोई केमिकल भेद नहीं है। कोयले के भी परमाणु वही है। जो हीरे के है। कोयले का भी रसायनिक मौलिक संगठन वही है जो हीरे का है। जो हीरे का है। हीरा कोयले का ही रूपांतरित—बदला हुआ रूप है।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि सेक्स कोयले की तरह है। ब्रह्मचर्य हीरे की तरह है। लेकिन वह कोयले का ही बदला हुआ रूप है। वह कोयले का दुश्मन नहीं है हीरा। वह कोयले की ही बदलाहट है। वह कोयले का ही रूपांतरण है। वह कोयले को ही समझकर नहीं दिशाओं में ले गयी यात्रा हे।
सेक्स का विरोध नहीं है ब्रह्मचर्य, सेक्स का ही रूपांतरण है, ट्रांसफॉर्मेशन है।
और जो सेक्स का दुश्मन है, वह कभी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं हो सकता है। ब्रह्मचर्य की दिशा में जाना हो और जाना जरूरी है, क्योंकि ब्रह्मचर्य का मतलब क्या है?
ब्रह्मचर्य का इतना मतलब है कि यह अनुभव अपलब्ध हो जाये। जो ब्रह्मा की चर्या जैसा है। जैसा भगवान का जीवन हो, वैसा जीवन उपलब्ध हो जाये।
ब्रह्मचर्य यानी ब्रह्मा की चर्या, ब्रह्मा जैसा जीवन। परमात्मा जैसा अनुभव उपलब्ध हो जाये।
वह हो सकता है आनी शक्तियों को समझकर रूपांतरित करने से।
आने वाले दो दिनों में कैसे रूपांतरित किया जा सकता है सेक्स, कैसे रूपांतरित हो जाने के बाद काम, राम के अनुभव में बदल जाता है। वह मैं आपसे बात करूंगा। और तीन दिन तक चाहूंगा कि बहुत गौर से सुन लेंगे। ताकि मेरे संबंध में कोई गलत फहमी पीछे आपके पैदा न हो। और जो भी प्रश्न हो ईमानदारी से और सच्चे, उन्हें लिख कर दे देंगे, ताकि आने वाले पिछले दो दिनों में मैं उनकी आपसे में सीधी बात कर सकूँ। किसी प्रश्न को छिपाने की जरूरत नहीं है। जो जिंदगी में सत्य है, उसे छिपाने का कोई कारण नहीं है। किसी सत्य से मुकरने की जरूरत नहीं है। जो सत्य है, वह सत्य है। चाहे हम आँख बंद करें, चाहे आँख खुली रखें।
और एक बात मैं जानता हूं। धार्मिक आदमी मैं उसका कहता हूं, जो जीवन के सारे सत्यों को सीधा साक्षात्कार करने की हिम्मत रखता है। जो इतने कमजोर, काहिल और नपुसंक है कि जीवन के तथ्यों का सामना भी नहीं कर सकते,उनके धार्मिक होने की कोई उम्मीद नहीं है।
ये आने वाले चार दिनों के लिए निमंत्रण देता हूं। क्योंकि ऐसे विषय पर यह बात है कि शायद ऋषि-मुनियों से आशा नहीं रही है कि ऐसे विषयों पर वे बात करेंगे। शायद आपको सुनने की आदत भी नहीं होगी। शायद आपका मन डरेगा, लेकिन फिर भी मैं चाहूंगा कि, इन पाँच दिनों आप ठीक से सुनने की कोशिश करें। यह हो सकता है कि काम की समझ आप को राम के मंदिर के भीतर प्रवेश दिला दे। आकांक्षा मेरी यही है। परमात्मा करे वह आकांक्षा पूरी हो।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना,उसके लिए अनुगृहित हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
( क्रमश: अगले अंक में ..................देखें)
ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
गोवा लिया टैंक, बम्बई,
28—सितम्बर—1968, (22,091)
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