Saturday, 22 June 2013

sambhog se smadhdi ki aur part 11


संभोग से समाधि की ओर—11


संभोग : समय-शून्‍यता की झलक—3मैत्री उस दिन शुरू होती है। जिस दिन वे एक दूसरे के साथी बनते है और उनके काम की ऊर्जा को रूपांतरण करने में माध्‍यम बन जाते है। उस दिन एक अनुग्रह एक ग्रेटीट्यूड, एक कृतज्ञता का भाव ज्ञापन होता है। उस दिन पुरूष आदर से भरता है। स्‍त्री के प्रति क्‍योंकि स्‍त्री ने उसे काम-वासना से मुक्‍त होने में सहयोग पहुंचायी है। उस दीन स्‍त्री अनुगृहित होती है पुरूष के प्रति कि उसने उसे साथ दिया और वासना से मुक्‍ति दिलवायी। उस दिन वे सच्‍ची मैत्री में बँधते है, जो काम की नहीं प्रेम की मैत्री है। उस दिन उनका जीवन ठीक उस दिशा में जाता है, जहां पत्‍नी के लिए पति परमात्‍मा हो जाता है। और पति के लिए पत्‍नी परमात्‍मा हो जाती है।
      लेकिन वह कुआं तो विषाक्‍त कर दिया है, इसी लिए मैंने कल कहा कि मुझसे बड़ा शत्रु सेक्‍स का खोजना कठिन हे। लेकिन मेरी शत्रुता का यह मतलब नहीं है कि मैं सेक्‍स को गाली दूँ और निंदा करूं। मेरी शत्रुता का मतलब यह है कि मैं सेक्‍स को रूपांतरित करने के संबंध में दिशा-सूचन करूं। मैं आपको कहूं कि वह कैसे रूपांतरित हो सकता है। मैं कोयले का दुश्‍मन हूं,क्‍योंकि मैं कोयले को हीरा बनाना चाहता हूं। मैं सेक्‍स को रूपांतरित करना चाहता हूं। वह कैसे रूपांतरित होगा, उसकी क्‍या विधि होगी?
      मैंने आपसे कहा, एक द्वार खोलना जरूरी है—नया द्वार। बच्‍चे जैसे ही पैदा होते है, वैसे ही उनके जीवन में सेक्‍स का आगमन नही हो जाता। अभी देर है। अभी शरीर शक्‍ति इकट्ठी कर रहा है। अभी शरीर के अणु मजबूत होंगे। अभी उस दिन की प्रतीक्षा है। जब शरीर पूरी तरह से तैयार हो जायेगा। ऊर्जा इकट्ठी होगी द्वार जो बंद रहा है। 14 वर्षो तक वह खुल जायेगा उर्जा के धक्‍के से, और सेक्‍स की दुनिया शुरू हो जायेगी। एक बार द्वार खुल जाने के बाद नया द्वार खोलना मुश्‍किल हो जायेगा। क्‍योंकि समस्‍त उर्जा का नियम यही है। समस्‍त शक्‍ति का वह एक दफा अपना मार्ग खोज ले बहने के लिए तो वह उसी मार्ग से बहना पसन्‍द करती है।
      गंगा बह रही है सागर की ओर, उसने एक बार रास्‍ता खोज लिया। अब वह उसी रास्‍ते से बही चली जाती है। बही चली जाती है। रोज-रोज नया पानी आता है। उसी रास्‍ते से बहता हुआ चला जाता है। गंगा रोज नया रास्‍ता नहीं खोजती है।
      जीवन की ऊर्जा भी एक रास्‍ता खोज लेती है। अब वह उसी रास्‍ते से बही चली जाती है।    अगर जीवन को कामुकता से मुक्‍त करना हे, तो सेक्‍स का रास्‍ता खुलने से पहले नया रास्‍ता, ध्‍यान का रास्‍ता तोड़ देना जरूरी है। एक-एक बच्‍चे को ध्‍यान की अनिवार्य शिक्षा और दीक्षा मिलनी चाहिए।
      पर हम उसे सेक्‍स के विरोध की दीक्षा देते है, जो कि अत्‍यंत मूर्खतापूर्ण है। सेक्‍स के विरोध की दीक्षा नहीं देनी है। शिक्षा देनी है ध्‍यान की, पाजीटिव कि वह ध्‍यान के लिए कैसे उपलब्‍ध हो। और बच्‍चे ध्‍यान को जल्‍दी उपलब्‍ध हो सकते है। क्‍योंकि अभी उनकी ऊर्जा का कोई भी द्वार खुला नहीं है। अभी द्वार बंद है, अभी ऊर्जा संरक्षित है, अभी कहीं भी नये द्वार पर धक्‍के दिये जो सकते है, और नया द्वार खोला जो सकता है। फिर ये ही बूढ़े, हो जायेंगे और इन्‍हें ध्‍यान में पहुंचना, अत्‍यंत कठिन हो जायेगा।
      ऐसे ही, जैसे एक नया पौधा पैदा होता है, उसकी शाखाएं कहीं भी झुक जाती है। कहीं भी झुकायी जा सकती है। फिर वही बूढ़ा वृक्ष हो जाता है। फिर हम उसकी शाखाओं को झुकाने की कोशिश करते है, तो फिर शाखाएं टूट जाती है, झुकती नहीं।
      बूढ़े लोग ध्‍यान की चेष्‍टा करते है दुनिया में, जो बिलकुल ही गलत है। ध्‍यान की सारी चेष्‍टा बच्‍चों पर की जानी चाहिए। लेकिन मरने के करीब पहुंच कर आदमी ध्‍यान में उत्‍सुक होता है। वह पूछता है ध्‍यान क्‍या, योग क्‍या,हम कैसे शांत हो जायें। जब जीवन की सारी ऊर्जा खो गयी, जब जीवन के सब रास्‍ते सख्‍त और मजबूत हो गये। जब झुकना और बदलना मुश्‍किल हो गया, तब वह पूछता है कि अब मैं कैसे बदल जाऊँ। एक पैर आदमी कब्र में डाल लेता है, और दूसरा पैर बहार रख कर पूछता है। ध्‍यान का कोई रास्‍ता है?
      अजीब सी बात है। बिलकुल पागलपन की बात है। यह पृथ्‍वी कभी भी शांत और ध्‍यानस्‍थ नहीं हो सकती। जब तक ध्‍यान का संबंध पहले दिन के पैदा हुए बच्‍चे से हम न जोड़ेंगे अंतिम दिन के वृद्ध से नहीं जोड़ा जा सकता। व्‍यर्थ ही हमें बहुत श्रम उठाना पड़ता है बाद के दिनों में शांत होने के लिए, जो कि पहले एकदम हो सकता था।
      छोटे बच्‍चे को ध्‍यान की दीक्षा काम के रूपांतरण का पहला चरण है—शांत होने की दीक्षा, निर्विचार होने की दीक्षा मौन होने की दीक्षा।
      बच्‍चे ऐसे भी मौन है, बच्‍चे ऐसे ही शांत है, अगर उन्‍हें थोड़ी सी दिशा दी जाये और उन्‍हें मौन और शांत होने के लिए घड़ी भर की भी शिक्षा दी जाये तो जब वे 14 वर्ष के होने के करीब आयेंगे। जब काम जगेगा, जब तक उनका एक द्वार खुल चुका होगा। शक्‍ति इकट्ठी होगी और जो द्वार से बहनी शुरू हो जायेगी। वह अनुभव उनकी ऊर्जा को गलत मार्गों से रोकेगा और ठीक मार्गों पर ले आयेगा।
      लेकिन हम छोटे-छोटे बच्‍चों को ध्‍यान तो नहीं सिखाते, काम का विरोध सिखाते है। पाप है गंदगी है। कुरूपता है, बुराई है, नरक है—यह सब हम बता रहे है। और इस सबके बताने से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता—कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। बल्‍कि हमारे बताने से वे और भी आकर्षित होते है और तलाश करते है कि क्‍या है यह गंदगी, क्‍या है नरक,जिसके लिए बड़े इतने भयभीत और बेचैन होते है।
      और फिर थोड़े ही दिनों में उन्‍हें यह भी पता चल जाता है कि बड़े जिस बात से हमें रोकने की कोशिश कर रहे है। खुद दिन रात उसी में लीन रहते है। और जिस दिन उन्‍हें यह पता चल जाता है, मां बाप के प्रति सारी श्रद्धा समाप्‍त हो जाती है।
      मां-बाप के प्रति श्रद्धा समाप्‍त करने में शिक्षा का हाथ नहीं है। मां-बाप के प्रति श्रद्धा समाप्‍त करने में मां बाप का अपना हाथ है।
      आप जिन बातों के लिए बच्‍चों को गंदा कहते है। बच्‍चे बहुत जल्‍दी पता लगा लेते है कि उन सारी गंदगियों में आप भली भांति लवलीन हे। आपकी दिन की जिंदगी दूसरी और रात की दूसरी। आप कहते है कुछ और करते है कुछ।    
      छोटे बच्‍चे बहुत एक्‍यूट आब्‍जर्वर होते है। वे बहुत गौर से निरीक्षण करते रहते है। कि क्‍या हो रहा है। घर में वे देखते है कि मां जिस बात को गंदा कहती है, बाप जिस बात को गंदा कहता है। वही गंदी बात दिन रात घर में चल रही है। इसकी उन्‍हें बहुत जल्‍दी बोध हो जाता है। उनकी सारी श्रद्धा का भाव विलीन हो  जाता है। कि धोखेबाज है ये मां-बाप। पाखंडी है। हिपोक्रेट है। ये बातें कुछ और कहते है, करते कुछ और है।
      और जिन बच्‍चों का मां-बाप पर से विश्र्वास उठ गया। वे बच्‍चे परमात्‍मा पर कभी विश्वास नहीं कर सकेंगे। इसको याद रखना। क्‍योंकि बच्‍चों के लिए परमात्‍मा का पहला दर्शन मां-बाप में होता है। अगर वहीं खंडित हो गया तो। ये बच्‍चे भविष्‍य में नास्‍तिक हो जाने वाले है। बच्‍चों को पहले परमात्‍मा की प्रतीति अपने मां-बाप की पवित्रता से होती है। पहली दफा बच्‍चे मां-बाप को ही जानते है। निकटतम और उनसे ही उन्‍हें पहली दफा श्रद्धा और रिवरेंस का भाव पैदा होता है। अगर वही खंडित हो गया तो इन बच्‍चों को मरते दम तक वापस परमात्‍मा के रास्‍ते पर लाना मुश्‍किल हो जायेगा। क्‍योंकि पहला परमात्‍मा ही धोखा दे गया। जो मां थी, जो बाप था, वहीं धोखे बाज सिद्ध हुआ।
      आज सारी दुनिया में जो लड़के यह कह रहे है कि कोई परमात्‍मा नहीं है, कोई आत्‍मा नहीं है। कोई मोक्ष नहीं है। धर्म सब बकवास है। उसका कारण यह नहीं है कि लड़कों ने पता लगा लिया है कि आत्‍मा नहीं है। परमात्‍मा नहीं है। उसका कारण यह है कि लड़कों ने मां-बाप का पता लगा लिया है। कि वे धोखेबाज है। और यह सार धोखा सेक्‍स के आस पास केंद्रित है। और यह सारा धोखा केंद्र पर खड़ा है।
      बच्‍चों को यह सिखाने की जरूरत नहीं है कि सेक्‍स पाप है, बल्‍कि ईमानदारी से यह सिखाने की जरूरत है कि सेक्‍स जिंदगी का एक हिस्‍सा है और तुम सेक्‍स से ही पैदा हुए हो, और वह हमारी जिंदगी में है, ताकि बच्‍चे सरलता से मां बाप को समझ सकें और जब जीवन को वह जानेंगे तो आदर से भर सकें कि मां-बाप सच्‍चे और ईमानदार है। उनको जीवन में आस्‍तिक बनाने में इससे बड़ा संबल और कुछ भी नहीं है। वे अपने मां बाप को सच्‍चे और ईमानदार अनुभव कर सकते है।
      लेकिन आज सब बच्‍चे जानते है कि मां-बाप बेईमान और धोखेबाज हे। यह बच्‍चे और मां बाप के बीच एक कलह का एक कारण बनता है। सेक्‍स का दमन पति ओर पत्‍नी को तोड़ दिया है। मां-बाप और  बच्‍चों को तोड़ दिया है।
      नहीं, सेक्‍स का विरोध नहीं, निंदा नहीं, बल्‍कि सेक्‍स की शिक्षा दी जानी चाहिए।
      जैसे ही बच्‍चे पूछने को तैयार हो जायें, जो भी जरूरी मालूम पड़े,जो उनकी समझ के योग्‍य मालूम पड़े, वह सब उन्‍हें बता दिया जाना चाहिए। ताकि वे सेक्‍स के संबंध में अति उत्‍सुक न हों। ताकि उनका आकर्षण न पैदा हो,ताकि वे दीवाने होकर गलत रास्‍तों से जानकारी पाने की कोशिश न करें।
      आज बच्‍चे सब जानकारी पा लेते है, यहाँ-वहां से। गलत मार्गों से, गलत लोगों से उन्‍हें जानकारी मिलती है। जो जीवन भर उन्‍हें पीड़ा देती है। और मां-बाप और उनके बीच एक मौन की दीवार होती है—जैसे मां-बाप को कुछ भी पता नहीं और बच्‍चों को भी पता नहीं है। उन्‍हें सेक्‍स की सम्‍यक शिक्षा मिलनी चाहिए—राइट एजुकेशन।
      और दूसरी बात, उन्‍हें ध्‍यान की दीक्षा मिलनी चाहिए। कैसे मौन हों, कैसे शांत हों, कैसे निर्विचार हों। और बच्‍चे तत्‍क्षण निर्विचार हो सकते है। मौन हो सकते है। शांत हो सकते है। चौबीस घंटे में एक घंटा अगर बच्‍चों को घर में मौन में ले जाने की व्‍यवस्‍था हो। निश्‍चित ही वह मौन में तभी जा सकेंगे,जब आप भी उनके साथ मौन बैठ सकें। हर घर में एक घंटा मौन का अनिवार्य होना चाहिए। एक दिन खाना न मिले घर में तो चल सकता है। लेकिन एक घंटा मौन के बिना घर नहीं चलना चाहिए।
      वह घर झूठा हे। उस घर को परिवार कहना गलत है, जिस परिवार में एक घंटे के मौन की दीक्षा नहीं है। वह एक घंटे का मौन चौदह वर्षों में उस दरवाजे को तोड़ देगा। रोज धक्‍के मारेगा। उस दरवाजे को तोड़ देगा। जिसका नाम ध्‍यान है। जिस ध्‍यान से मनुष्‍य को समय हीन, टाइमलेसनेस इगोलेसनेस, अहंकार-शुन्‍य का अनुभव होता है। जहां से आत्‍मा की झलक मिलती है। वह झलक सेक्‍स के अनुभव के पहले मिल जानी जरूरी है। अगर वह झलक मिल जाए तो सेक्‍स के प्रति अतिशय दौड़ समाप्‍त हो जायेगी। उर्जा इस नये मार्ग से बहने लगेगी। यह मैं पहला चरण कहता हूं।
      ब्रह्मचर्य की साधना में, सेक्‍स के ऊपर उठने की साधना में सेक्स की उर्जा के ट्रांसफॉर्मेशन के लिए पहला चरण है ध्‍यान और दूसरा चरण है प्रेम।
      बच्‍चों को बचपन से ही प्रेम की दीक्षा दि जानी चाहिए।
      हम अब तक यही सोचते है कि प्रेम की शिक्षा मनुष्‍य को सेक्‍स में ले जायेगी। यह बात अत्‍यंत भ्रांत हे। सेक्‍स की शिक्षा तो मनुष्‍य को प्रेम में ले जा सकती है। लेकिन प्रेम की शिक्षा कभी किसी मनुष्‍य को सेक्‍स में नहीं ले जाती। बल्‍कि सच्‍चाई बिलकुल उल्‍टी है।
      जो लोग जितने कम प्रेम से भरे होते है, उतने ही ज्‍यादा कामुक होते है।
      जिसके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ज्‍यादा धृणा होगी।
      जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतना ही विद्वेष होगा।
      जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ईर्ष्‍या होगी।
      जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही प्रतिस्‍पर्धा होगी।
      जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही दुःख और चिंता होगी।
      दुःख, चिंता, ईर्ष्‍या, घृणा, द्वेष इन सबसे जो आदमी जितना ज्‍यादा घिरा है, उसकी शक्‍तियां सारी की सारी भीतर इकट्ठा हो जाती है। उनके निकास का कोई मार्ग नहीं रह जाता है। उनके निकास का एक ही मार्ग रह जाता है—वह सेक्‍स हे।
      प्रेम शक्तियों का निकास बनता है। प्रेम बहाव है। क्रिएशन—सृजनात्‍मक है प्रेम। इसीलिए वह बहता है और एक तृप्‍ति लाता है। वह तृप्‍ति सेक्‍स की तृप्‍ति से बहुत ज्‍यादा कीमती और गहरी है। जिसे वह तृप्‍ति मिल गयी, वह फिर कंकड़-पत्‍थर नहीं बीनता। जिसे हीरे जवाहरात मिलने शुरू हो जाते है।
      लेकिन घृणा से भरे आदमी को वह तृप्‍ति कभी नहीं मिलती। घृणा में वह तोड़ देता है चीजों को। लेकिन तोड़ने से कभी किसी आदमी को कोई तृप्‍ति नहीं मिलती। तृप्‍ति मिलती है निर्माण करने से।
      द्वेष से भरा आदमी संघर्ष करता है। लेकिन संघर्ष से कोई तृप्‍ति नहीं मिलती तृप्‍ति मिलती है, दान से , देने से। छीन लेने से नहीं। संघर्ष करने वाला छीन लेता है। छीनने से वह तृप्‍ति  कभी नहीं मिलती जो किसी को देने से और दान से उपलब्‍ध होती है।
      महत्‍व कांक्षी आदमी एक पद से दूसरे पद की यात्रा करता रहता है। लेकिन कभी भी शांत नहीं हो पाता। शांत वे होते है जो पदों की यात्रा नहीं करते,बल्‍कि प्रेम की यात्रा करते है। जो प्रेम के एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ की यात्रा करते है।

( क्रमश: अगले अंक में ..................देखें)

ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
प्रवचन—3
गोवा लिया टैंक, बम्‍बई,
29—सितम्‍बर—1968,

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