संभोग से समाधि की और—7
संभोग : अहं-शून्यता की झलक—3
क्या आपने कभी सोचा है? आप किसी आदमी का नाम भूल सकते है, जाति भूल सकते है। चेहरा भूल सकते है? अगर मैं आप से मिलूं या मुझे आप मिलें तो मैं सब भूल सकता हूं—कि आपका नाम क्या था,आपका चेहरा क्या था, आपकी जाति क्या थी, उम्र क्या थी आप किस पद पर थे—सब भूल सकते है। लेकिन कभी आपको ख्याल आया कि आप यह भूल सके है कि जिस से आप मिले थे वह आदमी था या औरत? कभी आप भूल सकते है इस बात को कि जिससे आप मिले थे, वह पुरूष है या स्त्री? नहीं यह बात आप कभी नहीं भूल सके होगें। क्या लेकिन?जब सारी बातें भूल जाती है तो यह क्यों नहीं भूलता?
हमारे भीतर मन में कहीं सेक्स बहुत अतिशय हो बैठा है। वह चौबीस घंटे उबल रहा है। इसलिए सब बातें भूल जाती है। लेकिन यह बात नहीं भूलती है। हम सतत सचेष्ट है।
यह पृथ्वी तब तक स्वस्थ नहीं हो सकेगी, जब तक आदमी और स्त्रियों के बीच यह दीवार और यह फासला खड़ा हुआ है। यह पृथ्वी तब तक कभी भी शांत नहीं हो सकेगी,जब तक भीतर उबलती हुई आग है और उसके ऊपर हम जबरदस्ती बैठे हुए है। उस आग को रोज दबाना पड़ता है। उस आग को प्रतिक्षण दबाये रखना पड़ता है। वह आग हमको भी जला डालती है। सारा जीवन राख कर देती है। लेकिन फिर भी हम विचार करने को राज़ी नहीं होते। यह आग क्या थी?
और मैं आपसे कहता हूं अगर हम इस आग को समझ लें, तो यह आग दुश्मन नहीं दोस्त है। अगर हम इस आग को समझ लें तो यह हमें जलायेगी नहीं, हमारे घर को गर्म भी कर सकती है। सर्दियों में,और हमारी रोटियाँ भी सेक सकती है। और हमारी जिंदगी में सहयोगी और मित्र भी हो सकती है।
लाखों साल तक आकाश में बिजली चमकती थी। कभी किसी के ऊपर गिरती थी और जान ले लेती थी। कभी किसी ने सोचा भी नथा कि एक दिन घर के पंखा चलायेगी यह बिजली। कभी यह रोशनी करेगी अंधेरे में, यह किसी ने नहीं सोचा था। आज—आज वही बिजली हमारी साथी हो गयी है। क्यों?
बिजली की तरफ हम आँख मूंदकर खड़े हो जाते तो हम कभी बिजली के राज को न समझ पाते और न कभी उसका उपयोग कर पाते। वह हमारी दुश्मन ही बनी रहती। लेकिन नहीं, आदमी ने बिजली के प्रति दोस्ताना भाव बरता। उसने बिजली को समझने की कोशिश की, उसने प्रयास किया जानने के और धीरे-धीरे बिजली उसकी साथी हो गयी। आज बिना बिजली के क्षण भर जमीन पर रहना मुश्किल हो जाये।
मनुष्य के भीतर बिजली से भी अधिक ताकत है सेक्स की।
मनुष्य के भीतर अणु की शक्ति से भी बड़ी शक्ति है सेक्स की।
कभी आपने सोचा लेकिन, यह शक्ति क्या है और कैसे इसे रूपान्तरित करें? एक छोटे-से अणु में इतनी शक्ति है कि हिरोशिमा का पूरा का नगर जिस में एक लाख आदमी भस्म हो गये। लेकिन क्या आपने सोचा कि मनुष्य के काम की ऊर्जा का एक अणु एक नये व्यक्ति को जन्म देता है। उस व्यक्ति में गांधी पैदा हो सकता है, उस व्यक्ति में महावीर पैदा हो सकता है। उस व्यक्ति में बुद्ध पैदा हो सकता है, क्राइस्ट पैदा हो सकता है, उससे आइन्सटीन पैदा हो सकता है। और न्यूटन पैदा हो सकता है। एक छोटा सा अणु एक मनुष्य की काम ऊर्जा का, एक गांधी को छिपाये हुए है। गांधी जैसा विराट व्यक्ति पैदा हो सकता है।
लेकिन हम सेक्स को समझने को राज़ी नहीं है। लेकिन हम सेक्स की ऊर्जा के संबंध में बात करने की हिम्मत जुटाने को राज़ी नहीं है। कौन सा भय हमें पकड़े हुए है कि जिससे सारे जीवन का जन्म होता है। उस शक्ति को हम समझना नहीं चाहते?कौन सा डर है कौन सी घबराहट है?
मैंने पिछली बम्बई की सभा में इस संबंध में कुछ बातें कहीं थी। तो बड़ी घबराहट फैल गई। मुझे बहुत से पत्र पहुंचे कि आप इस तरह की बातें मत करें। इस तरह की बात ही मत करें। मैं बहुत हैरान हुआ कि इस तरह की बात क्यों न की जाये? अगर शक्ति है हमारे भीतर तो उसे जाना क्यों न जाये? क्यों ने पहचाना जाये? और बिना जाने पहचाने, बिना उसके नियम समझे,हम उस शक्ति को और ऊपर कैसे ले जा सकते है? पहचान से हम उसको जीत भी सकते है, बदल भी सकते है, लेकिन बिना पहचाने तो हम उसके हाथ में ही मरेंगे और सड़ेंगे, और कभी उससे मुक्त नहीं हो सकते।
जो लोग सेक्स क संबंध में बात करने की मनाही करते है, वे ही लोग पृथ्वी को सेक्स के गड्ढे में डाले हुए है। यह मैं आपसे कहना चाहता हूं, जो लोग घबराते है और जो समझते है कि धर्म का सेक्स से कोई संबंध नहीं, वह खुद तो पागल है ही, वे सारी पृथ्वी को पागल बनाने में सहयोग कर रहे है।
धर्म का संबंध मनुष्य की ऊर्जा के ‘’ट्रांसफॉर्मेशन’’ से है। धर्म का संबंध मनुष्य की शक्ति को रूपांतरित करने से है।
धर्म चाहता है कि मनुष्य के व्यक्तित्व में जो छिपा है, वह श्रेष्ठतम रूप से अभिव्यक्त हो जाये। धर्म चाहता है कि मनुष्य का जीवन निम्न से उच्च की एक यात्रा बने। पदार्थ से परमात्मा तक पहुंच जाये।
लेकिन यह चाह तभी पूरी हो सकती है.....हम जहां जाना चाहते है, उस स्थान को समझना उतना उपयोगी नहीं है। जितना उस स्थान को समझना उपयोगी है। क्योंकि यह यात्रा कहां से शुरू करनी है।
सेक्स है फैक्ट, सेक्स जो है वह तथ्य है मनुष्य के जीवन का। और परमात्मा अभी दूर है। सेक्स हमारे जीवन का तथ्य हे। इस तथ्य को समझ कर हम परमात्मा की यात्रा चल सकते है। लेकिन इसे बिना समझे एक इंच आगे नहीं जा सकते। कोल्हू के बेल कि तरह इसी के आप पास घूमते रहेंगे।
मैंने पिछली सभा में कहा था, कि मुझे ऐसा लगता है। हम जीवन की वास्तविकता को समझने की भी तैयारी नहीं दिखाते। तो फिर हम और क्या कर सकते है। और आगे क्या हो सकता है। फिर ईश्वर की परमात्मा की सारी बातें सान्त्वना ही, कोरी सान्त्वना की बातें है और झूठ है। क्योंकि जीवन के परम सत्य चाहे कितने ही नग्न क्यों न हो, उन्हें जानना ही पड़ेगा। समझना ही पड़ेगा।
तो पहली बात तो यह जान लेना जरूरी है कि मनुष्य का जन्म सेक्स में होता है। मनुष्य का सारा जीवन व्यक्तित्व सेक्स के अणुओं से बना हुआ है। मनुष्य का सारा प्राण सेक्स की उर्जा से भरा हुआ है। जीवन की उर्जा अर्थात काम की उर्जा। यह तो काम की ऊर्जा है, यह जा सेक्स की ऊर्जा है, यह क्या है? यह क्यों हमारे जीवन को इतने जोर से आंदोलित करती है? क्यों हमारे जीवन को इतना प्रभावित करती है? क्यों हम धूम-धूम कर सेक्स के आस-पास, उसके ईद-गिर्द ही चक्कर लगाते है। और समाप्त हो जाते है। कौन सा आकर्षण है इसका?
हजारों साल से ऋषि,मुनि इंकार कर रहे है, लेकिन आदमी प्रभावित नहीं हुआ मालूम पड़ता। हजारों साल से वे कह रहे है कि मुख मोड़ लो इससे। दूर हट जाओ इससे। सेक्स की कल्पना और काम वासना छोड़ दो। चित से निकाल डालों ये सारे सपने।
लेकिन आदमी के चित से यह सपने निकले ही नहीं। कभी निकल भी नहीं सकते है इस भांति। बल्कि मैं तो इतना हैरान हुआ हूं—इतना हैरान हुआ हूं। वेश्याओं से भी मिला हुं, लेकिन वेश्याओं ने मुझसे सेक्स की बात नहीं की। उन्होंने आत्म, परमात्मा के संबंध में पूछताछ की। और मैं साधु संन्यासियों से भी मिला हूं। वे जब भी अकेले में मिलते है तो सिवाये सेक्स के और किसी बात के संबंध में पूछताछ नहीं करते। मैं बहुत हैरान हुआ। मैं हैरान हुआ हूं इस बात को जानकर कि साधु-संन्यासियों को जो निरंतर इसके विरोध में बोल रहे है, वे खुद ही चितके तल पर वहीं ग्रसित है। वहीं परेशान है। तो जनता से आत्मा परमात्मा की बातें करते है, लेकिन भीतर उनके भी समस्या वही है।
होगी भी। स्वाभाविक है, क्योंकि हमने उस समस्या को समझने की भी चेष्टा नहीं की है। हमने उस ऊर्जा के नियम भी जानने नहीं चाहे है। हमने कभी यह भी नहीं पूछा कि मनुष्य का इतना आकर्षण क्यों है। कौन सिखाता है,सेक्स आपको।
सारी दूनिया तो सीखने के विरोध में सारे उपाय करती है। मॉं-बाप चेष्टा करते है कि बच्चे को पता न चल जाये। शिक्षक चेष्टा करता है। धर्म शास्त्र चेष्टा करते है कहीं स्कूल नहीं, कहीं कोई युनिवर्सिटी नहीं। लेकिन आदमी अचानक एक दिन पाता है कि सारे प्राण काम की आतुरता से भर गये है। यह कैसे हो जाता है। बिना सिखाये ये क्या होता है।
सत्य की शिक्षा दी जाती है। प्रेम की शिक्षा दी जाती है। उसका तो कोई पता नहीं चलता। सेक्स का आकर्षण इतना प्रबल है, इतना नैसर्गिक केंद्र क्या है, जरूर इसमें कोई रहस्य है और इसे समझना जरूरी है। तो शायद हम इससे मुक्त भी हो सकते है।
पहली बात तो यह है कि मनुष्य के प्राणों में जो सेक्स का आकर्षण है। वह वस्तुत: सेक्स का आकर्षण नहीं है। मनुष्य के प्राणों में जो काम वासना है, वह वस्तुत: काम की वासना नहीं है, इसलिए हर आदमी काम के कृत्य के बाद पछताता है। दुःखी होता है पीडित होता है। सोचता है कि इससे मुक्त हो जाऊँ। यह क्या है?
लेकिन आकर्षण शायद कोई दूसरा है। और वह आकर्षण बहुत रिलीजस, बहुत धार्मिक अर्थ रखता है। वह आकर्षण यह है.....कि मनुष्य के सामान्य जीवन में सिवाय सेक्स की अनुभूति के वह कभी भी अपने गहरे से गहरे प्राणों में नहीं उतर पाता है। और किसी क्षण में कभी गहरे नहीं उतरता है। दुकान करता है, धंधा करता है। यश कमाता है, पैसा कमाता है, लेकिन एक अनुभव काम का, संभोग का, उसे गहरे ले जाता है। और उसकी गहराई में दो घटनायें घटती है, एक संभोग के अनुभव में अहंकार विसर्जित हो जाता है। ‘’इगोलेसनेस’’ पैदा हो जाती है। एक क्षण के लिए अहंकार नहीं रह जाता, एक क्षण को यह याद भी नहीं रह जाता कि मैं हूं।
क्या आपको पता है, धर्म में श्रेष्ठतम अनुभव में ‘मैं’ बिलकुल मिट जाता है। अहंकार बिलकुल शून्य हो जाता है। सेक्स के अनुभव में क्षण भर को अहंकार मिटता है। लगता है कि हूं या नहीं। एक क्षण को विलीन हो जाता है मेरा पन का भाव।
दूसरी घटना घटती है। एक क्षण के लिए समय मट जाता है ‘’टाइमलेसनेस’’ पैदा हो जाती है। जीसस ने कहा है समाधि के संबंध में: ‘’देयर शैल बी टाईम नौ लांगर’’। समाधि का जो अनुभव है वहां समय नहीं रह जाता है। वह कालातीत है। समय बिलकुल विलीन हो जाता है। न कोई अतीत है, न कोई भविष्य—शुद्ध वर्तमान रह जाता है।
सेक्स के अनुभव में यह दूसरी घटना घटती है। न कोई अतीत रह जाता है , न कोई भविष्य। मिट जाता है,एक क्षण के लिए समय विलीन हो जाता है।
यह धर्म अनुभूति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है—इगोलेसनेस, टाइमलेसनेस।
दो तत्व है, जिसकी वजह से आदमी सेक्स की तरफ आतुर होता है और पागल होता है। वह आतुरता स्त्री के शरीर के लिए नहीं है पुरूष के शरीर के लिए स्त्री की है। वह आतुरता शरीर के लिए बिलकुल भी नहीं है। वह आतुरता किसी और ही बात के लिए है। वह आतुरता है—अहंकार शून्यता का अनुभव, समय शून्यता का अनुभव।
लेकिन समय-शून्य और अहंकार शून्य होने के लिए आतुरता क्यों है? क्योंकि जैसे ही अहंकार मिटता है,आत्मा की झलक उपलब्ध होती है। जैसे ही समय मिटता है, परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।
एक क्षण की होती है यह घटना, लेकिन उस एक क्षण के लिए मनुष्य कितनी ही ऊर्जा, कितनी ही शक्ति खोने को तैयार है। शक्ति खोने के कारण पछतावा है बाद में कि शक्ति क्षीण हुई शक्ति का अपव्यय हुआ। और उसे पता हे कि शक्ति जितनी क्षीण होती है मौत उतनी करीब आती है।
कुछ पशुओं में तो एक ही संभोग के बाद नर की मृत्यु हो जाती है। कुछ कीड़े तो एक ही संभोग कर पाते है और संभोग करते ही समाप्त हो जाते है। अफ्रीका में एक मकड़ा होता है। वह एक ही संभोग कर पाता है और संभोग की हालत में ही मर जाता है। इतनी ऊर्जा क्षीण हो जाती है।
मनुष्य को यह अनुभव में आ गया बहुत पहले कि सेक्स का अनुभव शक्ति को क्षीण करता है। जीवन ऊर्जा कम होती है। और धीरे-धीरे मौत करीब आती है। पछतावा है आदमी के प्राणों में, पछताने के बाद फिर पाता है घड़ी भर बाद कि वही आतुरता है। निश्चित ही इस आतुरता में कुछ और अर्थ है, जो समझ लेना जरूरी है।
सेक्स की आतुरता में कोई ‘रिलीजस’ अनुभव है, कोई आत्मिक अनुभव हे। उस अनुभव को अगर हम देख पाये तो हम सेक्स के ऊपर उठ सकते है। अगर उस अनुभव को हम न देख पाये तो हम सेक्स में ही जियेंगे और मर जायेंगे। उस अनुभव को अगर हम देख पाये—अँधेरी रात है और अंधेरी रात में बिजली चमकती है। बिजली की चमक अगर हमें दिखाई पड़ जाये और बिजली को हम समझ लें तो अंधेरी रात को हम मिटा भी सकते है। लेकिन अगर हम यह समझ लें कि अंधेरी रात के कारण बिजली चमकती है तो फिर हम अंधेरी रात को और धना करने की कोशिश करेंगे, ताकि बिजली की चमक और गहरी हो।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि संभोग का इतना आकर्षण क्षणिक समाधि के लिए है। और संभोग से आप उस दिन मुक्त होंगे। जिस दिन आपको समाधि बिना संभोग के मिलना शुरू हो जायेगी। उसी दिन संभोग से आप मुक्त हो जायेंगे, सेक्स से मुक्त हो जायेंगे।
क्योंकि एक आदमी हजारा रूपये खोकर थोड़ा सा अनुभव पाता हो और कल हम उसे बता दें कि रूपये खोने की कोई जरूरत नहीं है, इस अनुभव की जो खदानें भरी पड़ी है। तुम चलो इस रास्ते से और उस अनुभव को पा लो। तो फिर वह हजार रूपये खोकर उस अनुभव को खरीदने बाजार में नहीं जायेगा।
सेक्स जिस अनुभूति को लाता है। अगर वह अनुभूति किन्हीं और मार्गों से उपलब्ध हो सके, तो आदमी को चित सेक्स की तरफ बढ़ना, अपने आप बंद हो जाता है। उसका चित एक नयी दिशा लेनी शुरू कर देता है।
इस लिए मैं कहता हूं कि जगत में समाधि का पहला अनुभव मनुष्य को सेक्स से ही उपलब्ध हुआ है।
( क्रमश: अगले अंक में ..................देखें)
ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
गोवा लिया टैंक, बम्बई,
28—सितम्बर—1968,
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