संभोग से समाधि की और—31
जनसंख्या का विस्फोट-
पृथ्वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए,समुद्र की सतह में खोजें गये बहुत से ऐसे पशुओ के अस्थिर पंजर मिले है, जिनका अब कोई नामों निशान नहीं रह गया है। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्वी बहुत से सरीसृप प्राणियों से भरी थी। लेकिन, आज हमारे घर में छिपकली के अतिरिक्त उनका कोई प्रतिनिधि नहीं है। छिपकली भी बहुत छोटा प्रतिनिधि है। दस लाख साल पहले उसके पूर्वज हाथियों से भी पाँच गुना बड़े होते थे। वे सब कहां खो गये, इतने शक्तिशाली पशु पृथ्वी से कैसे विलुप्त हो गये। किसी ने उन पर हमला किया? किसी ने उन पर एटम बम, हाइड्रोजन बम गिराया? नहीं उनके खत्म होने की अद्भुत कथा है।
उन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि वे खत्म हो जायेंगे। वे खत्म हो गए, अपनी संतति के बढ़ जाने के कारण। वे इतने बढ़ गये कि पृथ्वी पर जीना उनके लिए असंभव हो गया। भोजन कम हुआ, पानी कम हुआ,लिव्हिंग स्पेस कम हुआ। जीने के लिए जितनी जगह चाहिए वह कम हो गयी। उन पशुओं को बिलकुल आमूल नष्ट हो जाना पडा।
ऐसी दुर्घटना आज तक मनुष्य जाति के जीवन में नहीं आयी है; लेकिन भविष्य में आ सकती है। आज तक नहीं आयी उसका कारण यह था कि प्रकृति ने निरंतर मृत्यु को और जन्म संतुलित रखा था। बुद्ध के जमाने में दस आदमी पैदा होते थे तो सात या आठ जन्म के बाद मर जाते थे। दुनिया की आबादी कभी इतनी नहीं बढ़ी थी कमी पड़ जाए, खाने की कमी पड़ जाये। विज्ञान और आदमी की निरंतर खोज ने और मृत्यु से लड़ाई लेने की होड़ ने यह स्थिति पैदा कर दी है। कि आज दस बच्चे पैदा होते है तो उनमें से मुश्किल से एक बच्चा मर पाता है।
स्थिति बिलकुल उल्टी हो गयी है। आज रूस में डेढ़ सौ वर्ष की उम्र के भी हजारों लोग है। औसत उम्र अस्सी और बयासी वर्ष तक कुछ मुल्कों में पहुच गई है। स्वाभाविक परिणाम जो होना था, वह हुआ कि जन्म की दर पुरानी रही, किन्तु मृत्यु दस हमने कर दी। अकाल थे; किंतु आकाल में मरना हमने बंद कर दिया। महामारियाँ आती थी,प्लेग आते थे, मलेरिया होता था, हैजा होता था, वे सब हमने बंद कर दिये। हमने मृत्यु के बहुत से द्वार रोक दिये और जन्म के सब द्वार खुले छोड़ दिये। मृत्यु और जन्म के बीच जो संतुलन था, वह विलुप्त हो गया।
1945 में हिरोशिमा और नागासाकी में एटम बम गिरे, उनमें एक लाख आदमी मरे। इस समय लोगों को खतरा है की एटम बम बनते चले गये तो, सारी दुनियां नष्ट हो जायेगी। लेकिन आज जो लोग समझते है, वे कहते है कि दुनिया के नष्ट होने की संभावना एटम बम से बहुत कम है; दुनियां की नयी सम्भावना है यह है—लोगों के पैदा होने से। एक एटम बम गिराकर हिरोशिमा में एक लाख आदमी हमने मारे; लेकिन हम प्रतिदिन डेढ़ लाख आदमी दुनिया में बढ़ा देते है।
एक हिरोशिमा क्या, दो हिरोशिमा रोज हम पैदा कर लेते है। दो लाख आदमी प्रतिदिन बढ़ जाते है।
इसका डर है कि यदि इसी तरह संख्या बढ़ती चली गयी तो इस सदी के पूरे होते-होते हिलने के लिए भी जगह शेष न रह जाएगी। और तब सभाएँ करने की जरूरत नहीं रह जायेगी। क्योंकि तब हम लोग चौबीस घंटे सभाओं में होंगे। आदमी को न्यूयार्क और बम्बई में चौबीसों घंटे हिलने की फुरसत नहीं है। उसे सुविधा नहीं है अवकाश नहीं है।
इस समय सबसे बड़ी चिंता, जो मनुष्य जाति के हित के संबंध में सोचते है, उन लोगों के समक्ष अति तीव्र हो जाना सुनिश्चित है कि यदि मृत्युदर को रोक दिया और जनम दर को पुराने रास्ते चलने दिया तो बहुत डर है कि पृथ्वी हमारी संख्या से ही डूब जाये और नष्ट हो जाये। हम इतने ज्यादा हो गये कि जीना असंभव हो गया है। इसलिए जों भी विचारशील है, वे वहीं कहेंगे कि जिस भांति हमने मृत्यु दर को रोका है उसी भांति जन्म दर को भी रोकना बहुत महत्वपूर्ण है।
पहली बात तो यह ध्यान में रख लेनी है कि जीवन एक अवकाश चाहिए है। जंगल में जानवर मुक्त है मीलों के घेरे में घूमता है। दौड़ता है उसे कट घरे में बंद कर दें, तो उसका विक्षिप्त होना शुरू हो जाता है। बंदर भी मीलों नाचा करते है। पचास बंदरों को एक मकान में बंद कर दें, तो उनका पागल होना शुरू हो जायेगा। प्रत्येक बंदर को एक लिव्हिंग स्पेस, खुली जगह चाहिए जहां वह जी सके।
अब लंदन, मॉस्को, न्यूयॉर्क,और वाशिंगटन में लिव्हिंग स्पेस खो गये है। छोटे-छोटे कट घरों में आदमी बंद है। एक-एक घर में एक-एक कमरे में दस-दस बारह-बारह आदमी बंद है। वहां वे पैदा होते है, वहीं मरते है, वहीं वे भोजन करते है, वहीं बीमार पड़ते है। एक-एक कमरे में दस-दस बारह-बारह पंद्रह-पंद्रह लोग बंद है। अगर वे विक्षिप्त हो जायें तो कोई आश्चर्य नहीं है। अगर वे पागल हो जाये तो को चमत्कार नहीं है। वे पागल होंगे ही। वे पागल नहीं हो रहे है, यहीं चमत्कार है। यही आश्चर्य है, अगर इतने कम पागल हो पा रहे है यही कम आश्चर्य की बात है।
मनुष्य को खुला स्थान चाहिए जीने के लिए लेकिन संख्या जब ज्यादा हो जाये, तो यह बुराई हमें ख्याल में नहीं आती। जब आप एक कमरे में होते है, अब एक मुक्ति अनुभव करते है। दस लोग आकर कमरे में सिर्फ बैठ जायें कुछ न करें तो भी आपके मस्तिष्क में एक अंजान भार बढ़ना शुरू हो जाता है। मनोवैज्ञानिक कहते है कि चारों तरफ बढ़ती हुई भीड़ का प्रत्येक व्यक्ति के मन पर एक अनजाना भार है। आप रास्ते पर चल रहे है, अकेले कोई भी उस रास्ते पर नहीं है। तब आप दूसरे ढंग के आदमी होते है। और फिर उस रास्ते पर दो आदमी बगल की गली के निकल कर आ जाते है। तो आप दूसरे ढंग के आदमी हो जाते है। उनकी मौजूदगी आपके भीतर कोई तनाव पैदा कर देती है।
आप अपने बाथरुम में होते है, तब आपने ख्याल किया है कि आप वही आदमी नहीं होते बैठक घर में होते है। बाथरुम में आप बिलकुल दूसरे आदमी होते है। बूढा भी बाथरुम में बच्चे जैसा उन्मुक्त हो जाता है। बूढ़े भी बाथरुम के आईने में बच्चे जैसी जीभ दिखाई है। मुहर चिढ़ाते है। नाच भी लेते है। लेकिन अगर उन्हें पता चल जाये कि किसी छेद कोई झांक रहा है। तो फिर वे एकदम बूढ़े हो जायेगे। उनका बचपना खो जायेगा। फिर वे सख्त और मजबूर होकर बदल जायेंगे।
हमें कुछ क्षण चाहिए, जब हम बिलकुल अकेले हो सकें।
मनुष्य की आत्मा के जो श्रेष्ठ फूल है, वे एकांत और अकेले में ही खिलते है।
काव्य, संगीत अथवा परमात्मा की प्रतिध्वनि सब एकांत और अकेले में ही मिलती है।
आज तक जगत में भीड़-भाड़ में श्रेष्ठ काम नहीं हुआ, भीड़ ने अब तक कोई श्रेष्ठ काम किया ही नहीं।
जो भी जगत में श्रेष्ठ है—कविता,चित्र, संगीत,परमात्मा, प्रार्थना, प्रेम—वे सब एकान्त में और अकेले में ही फूले है।
लेकिन वे सब फूल शेष न रहे जायेंगे। मुर्झा जायेंगे, मुर्झा रही है। वे सब मिट जायेंगे। सब लुप्त हो जायेंगे। क्योंकि आदमी श्रेष्ठ से रिक्त हो गया है।
भीड़ में निजता मिट गई है। इंडीवीजुअलटी मिट जाती है।
स्वयं को बोध कम हो जाता है। आप अकेले नहीं मात्र भीड़ के अंग होते है। इसलिए भीड़ बुरे काम कर सकती है। अकेला आदमी इतने बुरे काम नहीं कर पाता।
अगर किसी मस्जिद को जलाना हो, तो अकेला आदमी उसे नहीं जला सकता है, चाहे वह कितना ही पक्का हिन्दू क्यों न हो। अगर किसी मंदिर में राम की मूर्ति तोड़नी हो तो अकेला मुसलमान नहीं तोड़ सकता है। चाहे वह कितना ही पक्का मुसलमान क्यों न हो। उसके लिए भीड़ चाहिए अगर बच्चों की हत्या करना हो स्त्रीयों के साथ बलात्कार करना और जिंदा आदमियों में आग लगानी हो तो अकेला बहुत कठिनाई अनुभव करता है लेकिन भीड़ एकदम सरलता से करवा लेती है। क्यों?
क्योंकि भीड़ में कोई व्यक्ति नहीं रह जाता और जब व्यक्ति नहीं रह जाता, तो दायित्व,रिस्पॉन्सबिलिटी,भी विदा हो जाती है। तब हम कह सकते है कि हमने नहीं किया,आप भी भीड़ में सम्मिलित थे।
कभी आपने देखा की भीड़ तेजी से चल रही हो; नारे लगा रही हो, तो आप भी नारे लगाने लगते है। और आप भी भीड़ के साथ एक हो जाते हे। ऐसा क्या?
एडल्ट हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि शुरू-शुरू में मेरे पास बहुत थोड़ लोग थे, दस पन्द्रह लोग थे। लेकिन दस-पन्द्रह लोगों से हिटलर, कैसे हुकूमत पर पहुंचा, सि अजीब कथा है। हिटलर ले लिखा है कि मैं अपने दस पन्द्रह लोगों को ही लेकर सभा में पहुंच जात था। उन पन्द्रह लोगों को अलग-अलग कोनों पर खड़ा कर देता था और जब मैं बोलता था तो उन पन्द्रह लोगों को अलग-अलग तालियां बजाने को कहा जाता था। वे पन्द्रह लोग ताली बजाते थे और बाकी भीड़ भी उनके साथ हो जाती थी। बाकी भीड़ भी तालियां बजाती थी।
कभी आपने ख्याल किया है कि जब आप भीड़ में ताली बजाते है तो आप नहीं बजाते। भीड़ बजवाती है। जब आप भीड़ में हंसते है तो भीड़ ही आपको हंसा देती है। भीड़ संक्रामक है, वह कुछ भी करवा लेती है। क्योंकि वह व्यक्ति को मिटा देती है। वह व्यक्ति की आत्मा को जो उसका अपना होता है उसे पोंछ डालती है।
अगर पृथ्वी पर भीड़ बढ़ती गयी,तो व्यक्ति विदा हो जायेगा। भीड़ रह जायेगी। व्यिक्तत्व क्षीण हो जायेगा। खत्म हो जायेगा। मिट जायेगा। यह भी सवाल नहीं है कि पृथ्वी आगे इतने जीवों को पालने में असमर्थ हो जाये। अगर हमने सब उपाय भी कर लिए, समुद्र से भोजन निकाल लिया, निकाल भी सकते है। क्योंकि मजबूरी होगी, कोई उपास सोचना पड़ेगा। समुद्र से भोजन निकल सकता है। हो सकता है हवा में भी खाना निकाला जा सके। और यह भी हो सकता है कि मिट्टी से भी भोजन को ग्रहण कर सकें। यह बस हो सकता है। सिर्फ गोलियां खाकर भी आदमी जिंदा रह सकता है। भीड़ बढ़ती गई तो भोजन का कोई हल तो हम कर लेंगे, लेकिन आत्मा का हल नहीं हो सकेगा।
इसलिए मेरे सामने परिवारनियोजन केवल आर्थिक मामला नहीं है, बहुत गहरे अर्थों में धार्मिक मामला है।
भोजन तो जुटाया जा सकता है। उसमे बहुत कठिनाई नहीं है। भोजन की कठिनाई अगर लोग समझते है तो बिलकुल गलत समझते है। अभी समुद्र भरे पड़े है। अभी समुद्रों में बहुत भोजन है। वैज्ञानिक प्रयोग यह कह रहे है कि समुद्रों के पानी से बहुत भोजन निकाला जा सकता है। आखिर मछली भी तो समुद्र से भोजन ले रही है। लाखों तरह के जानवर समुद्र से, पानी से भोजन ले रहे है। हम भी पानी से भोजन निकाल सकते है। हम मछली को खा लेते है तो हमारा भोजन बन जाती है। और मछली ने जो भोजन लिया, वह पानी से लिया। अगर हम एक ऐसी मशीन बना सके जो मछली का काम कर सकती है। तो हम पानी से सीधा भोजन पैदा कर सकते है। आखिर मछली भी एक मशीन का ही तो काम कर रही है।
गया घास खाती है, हम गाय का दूध पी लेते है। हम सीधा घास खाये तो मुश्किल होगी। बीच में मध्यस्थ गाय चाहिए। गाय घास को इस हालात में बदल देती है हमारे भोजन के योग्य हो जाता है। आज नहीं कल हम मशीन की गाय भी बना लेंगे। जो घास को इस हालत में बदल दे कि हम उसको खा लें। तब दूध जल्दी ही बन सकेगा। जब व्हेजिटबल घी बन सकता है तो व्हेजिटबल दूध क्यों नहीं बन सकता है। कोई कठिनाई नहीं है। भोजन का मसला तो हल हो जायेगा। लेकिन असली सवाल भोजन का नहीं है। असली सवाल ज्यादा गहरे है।
अगर आदमी की भीड़ बढ़ती जाती है तो पृथ्वी कीड़े मकोड़े की तरह आदमी से भर जायेगी। इससे आदमी की आत्मा खो जायेगी। और उस आत्मा को देन का विज्ञान के पास कोई उपाय नहीं है। आत्मा खो ही जायेगी। और अगर भीड़ बढ़ती चली गई तो, एक-एक व्यक्ति पर चारों और से अनजाना दबाव पड़ेगा। हमें अनजाने दबाव कभी दिखाई नहीं पड़ते।
आप जमीन पर चलते है आपके कभी सोचा की जमीन का ग्रेव्हिटेशन, गुरुत्वाकर्षण आपको खींच रहा है। हम बचपन से ही इसके आदी हो गये है इससे हमें पता नहीं चलता, लेकिन जमीन का बहुत बड़ा आकर्षण हमें पूरे वक्त खींचे हुए है। अभी चाँद पर जो यात्री गये है, उन्हें पता चला कि जमीन उन्हें लौटकर वैसी नहीं लगी। जैसी पहले लगती थी। चाँद पर वे यात्री साठ फिट छलांग भी लगा सकते थे। क्योंकि चाँद की पकड़ बहुत कम है। चाँद बहुत नहीं खींचता है। जमीन बहुत जोर से खींच रही है। हवाएँ चारों तरफ से दबाव डाले हुए है। लेकिन उनका पता हमें नहीं चलता। क्योंकि हम उसके आदी हो गये है।
क्रमश: अगले लेख में............
ओशो
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