संभोग से समाधि की ओर—12
संभोग: समय शून्यता की झलक—4
जितना आदमी प्रेम पूर्ण होता है। उतनी तृप्ति, एक कंटेंटमेंट, एक गहरा संतोष, एक गहरा आनंद का भाव, एक उपलब्धि का भाव, उसके प्राणों के रग-रग में बहने लगाता है। उसके सारे शरीर से एक रस झलकने लगता है। जो तृप्ति का रस है, वैसा तृप्त आदमी सेक्स की दिशाओं में नहीं जाता। जाने के लिए रोकने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती। वह जाता ही नहीं,क्योंकि वह तृप्ति, जो क्षण भर को सेक्स से मिलती थी, प्रेम से यह तृप्ति चौबीस घंटे को मिल जाती है।
तो दूसरी दिशा है, कि व्यक्तित्व का अधिकतम विकास प्रेम के मार्गों पर होना चाहिए। हम प्रेम करें, हम प्रेम दें, हम प्रेम में जियें।
और जरूरी नहीं है कि हम प्रेम मनुष्य को ही देंगे, तभी प्रेम की दीक्षा होगी। प्रेम की दीक्षा तो पूरे व्यक्तित्व के प्रेमपूर्ण होने की दीक्षा है। वह तो‘टू बी लिविंग’ होने की दीक्षा है।
एक पत्थर को भी हम उठाये तो हम ऐसे उठा सकते है। जैसे मित्र को उठा रहे है। और एक आदमी का हाथ भी हम पकड सकते है, जैसे शत्रु का पकड़े हुए है। एक आदमी वस्तुओं के साथ भी प्रेमपूर्ण व्यवहार कर सकता है। एक आदमी आदमियों के साथ भी ऐसा व्यवहार करता है, जैसा वस्तुओं के साथ भी नहीं करना चाहिए। घृणा से भरा हुआ आदमी वस्तुएं समझता है मनुष्य को। प्रेम से भरा हुआ आदमी वस्तुओं को भी व्यक्तित्व देता है।
एक फकीर से मिलने एक जर्मन यात्री गया हुआ था। उस फकीर से जाकर नमस्कार किया। उसने दरवाजे पर जोर से जूते खोल दिये, जूतों को पटका, धक्का दिया जोर से दरवाजे को।
क्रोध में आदमी जूते भी खोलता है तो ऐसे जैसे जूते दुश्मन हो। दरवाजे भी खोलता है तो ऐसे दरवाजे से कोई झगड़ा हो।
दरवाजे को धक्का देकर वह भीतर गया। उस फकीर से जाकर नमस्कार किया। उस फकीर ने कहा: नहीं, अभी मैं नमस्कार का उत्तर न दे सकूंगा। पहले तुम दरवाजे से और जूतों से क्षमा मांग कर आओ।
उस आदमी ने कहा, आप पागल हो गये है? दरवाज़ों और जूतों से क्षमा। क्या उनका भी कोई व्यक्तित्व है?
उस फकीर ने कहा, तुमने क्रोध करते समय कभी भी न सोचा कि उनका कोई व्यक्तित्व है। तुमने जूते ऐसे पटके जैसे उनमें जाने हो, जैसे उनका कोई कसूर हो। तुमने दरवाजा ऐसे खोला जैसे तुम दुश्मन हो। नहीं, जब तुमने क्रोध करते वक्त उनका व्यक्तित्व मान लिया,तो पहले जाओ, क्षमा मांग कर आ जाओ, तब मैं तुमसे आगे बात करूंगा। अन्यथा मैं बात करने को नहीं हूं।
अब वह आदमी दूर जर्मनी से उस फकीर को मिलने गया था। इतनी सी बात पर मुलाकात न हो सकेगी। मजबूरी थी। उसे जाकर दरवाजे पर हाथ जोड़कर क्षमा मांगनी पड़ी कि मित्र क्षमा कर दो। जूतों को कहना पड़ा, माफ करिए,भूल हो गई, हमने जो आपको इस भांति गुस्से में खोला।
उस जर्मन यात्री ने लिखा है कि लेकिन जब मैं क्षमा मांग रहा था तो पहले तो मुझे हंसी आयी कि मैं क्या पागलपन कर रहा हूं। लेकिन जब मैं क्षमा मांग चुका तो मैं हैरान हुआ। मुझे एक इतनी शांति मालूम हुई, जिसकी मुझे कल्पना तक नहीं थी। कि दरवाजे और जूतों से क्षमा मांग कर शांति मिल सकती है।
मैं जाकर उस फकीर के पास बैठ गया, वह हंसने लगा। उसने कहां, अब ठीक है, अब कुछ बात हो सकती है। तुमने थोड़ा प्रेम जाहिर किया। अब तुम संबंधित हो सकते हो, समझ भी सकते हो। क्योंकि अब तुम प्रफुल्लित हो,अब तुम आनंद से भर गये हो।
सवाल मनुष्यों के साथ ही प्रेम पूर्णा होने का नहीं, यह सवाल नहीं है कि मां को प्रेम दो? ये गलत बात है। जब कोई मां अपने बच्चे को कहती है कि में तेरी मां हूं इसलिए प्रेम कर। तब वह गलत शिक्षा दे रही है। क्योंकि जिस प्रेम में इसलिए लगा हुआ है। देय फोर वह प्रेम झूठा है। जो कहता है, इसलिए प्रेम करो कि मैं बाप हूं,वह गलत शिक्षा दे रहा है। वह कारण बता रहा है प्रेम का।
प्रेम अकारण होता है, प्रेम कारण सहित नहीं होता है।
मां कहती है, मैं तेरी मां हूं,मैंने तुझे इतने दिन पाला-पोसा,बड़ा किया, इसलिए प्रेम कर। वह वजह बता रही है, प्रेम खत्म हो गया। अगर वह प्रेम भी होगा तो बच्चा झूठा प्रेम दिखाने की कोशिश करेगा। क्योंकि यह मां है। इसलिए प्रेम दिखाना पड़ रहा है।
नहीं प्रेम की शिक्षा का मतलब है: प्रेम का कारण नहीं; प्रेमपूर्ण होने की सुविधा और व्यवस्था कि बच्चा प्रेमपूर्ण हो सके।
जो मां कहती है कि मुझसे प्रेम कर, क्योंकि मैं मां हूं, वह प्रेम नहीं सिखा रही। उसे यह कहना चाहिए कि यह तेरा व्यक्तित्व,यह तेरे भविष्य, यह तेरे आनंद की बात है, कि जो भी तेरे मार्ग पर पड़ जाये, तू उससे प्रेमपूर्ण हो—पत्थर पड़ जाए। फूल पड़ जाये, आदमी पड़ जाये, जानवर पड़ जाये, तू प्रेम देना। मां को प्रेम देने का नहीं, तेरे प्रेमपूर्ण होने का है। क्योंकि तेरा भविष्य इस पर निर्भर करेगा। कि तू कितना प्रेमपूर्ण है। तेरा व्यक्तित्व कितना प्रेम से भरा हुआ है। उतना तेरे जीवन में आनंद की संभावना बढ़ेगी।
प्रेम पूर्ण होने की शिक्षा चाहिए मनुष्य को, तो वह कामुकता से मुक्त हो सकता है।
लेकिन हम तो प्रेम की कोई शिक्षा नहीं देते। हम तो प्रेम का कोई भाव पैदा होने नहीं देते। हम तो प्रेम के नाम पर जो भी बात करते है वह झूठे ही सिखाते है उनको।
क्या आपको पता है कि एक आदमी एक के प्रति प्रेमपूर्ण है और दूसरे के प्रति घृणा पूर्ण हो सकता है? यह असंभव है।
प्रेमपूर्ण आदमी प्रेमपूर्ण होता है। आदमी से कोई संबंध नहीं है उस बात का। अकेले में बैठता है तो भी प्रेमपूर्ण होता है। कोई नहीं होता तो भी प्रेमपूर्ण होता है। प्रेमपूर्ण होना उसके स्वभाव की बात है। वह आपसे संबंधित होने का सवाल नहीं है।
क्रोधी आदमी अकेले में भी क्रोधपूर्ण होता है। घृणा से भरा आदमी घृणा से भरा हुआ होता है। वह अकेले भी बैठा है तो आप उसको देख कर कह सकते है कि यह आदमी क्रोधी है, हालांकि वह किसी पर क्रोध नहीं कर रहा है। लेकिन उसका सारा व्यक्तित्व क्रोधी है।
प्रेम पूर्ण आदमी अगर अकेले में बैठा है, तो आप कहेंगे यह आदमी कितने प्रेम से भरा हुआ बैठा है।
फूल एकांत में खिलते है जंगल के तो वहां भी सुगंध बिखेरते रहते है। चाहे कोई सूंघने वाला हो या न हो। रास्तें से कोई निकले या न निकले। फूल सुगंधित होता रहता है। फूल का सुगंधित होना स्वभाव है। इस भूल में आप मत पड़ना कि आपके लिए सुगंधित हो रहा है।
प्रेमपूर्ण होना व्यक्तित्व बनाना चाहिए। वह हमार व्यक्तित्व हो, इससे कोई संबंध नहीं कि वह किसके प्रति।
लेकिन जितने प्रेम करने वाले लोग है, वे सोचते है कि मेरे प्रति प्रेमपूर्ण हो जाये। और किसी के प्रति नहीं। और उनको पता नहीं है कि जो सबके प्रति प्रेम पूर्ण नहीं है वह किसी के प्रति भी प्रेम पूर्ण नहीं हो सकता।
पत्नी कहती है पति से, मुझे प्रेम करना बस, फिर आ गया स्टाप। फिर इधर-उधर कहीं देखना मत, फिर और कहीं तुम्हारे प्रेम की जरा सी धारा न बहे, बस प्रेम यानी इस तरफ। और उस पत्नी को पता नहीं है कि प्रेम झूठा है,वह अपने हाथ से किये ले रही है, जो पति प्रेमपूर्ण नहीं है हर स्थिति में, हरेक के प्रति,वह पत्नी के प्रति भी प्रेम पूर्ण नहीं हो सकता।
प्रेम पूर्ण चौबीस घंटे के जीवन का स्वभाव है। वह ऐसी कोई नहीं कि हम किसी के प्रति प्रेमपूर्ण हो जायें और किसी के प्रति प्रेमहीन हो जायें। लेकिन आज तक मनुष्य इसको समझने में समर्थ नहीं हो सका है।
बाप कहता है कि मेरे प्रति प्रेम पूर्ण, लेकिन घर में जा चपरासी है उसके प्रति....वह तो नौकर है। लेकिन उसे पता है कि जो बेटा एक बूढ़े नौकर के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हो पाया है....वह बूढ़ा नौकर भी किसी का बाप है।
लेकिन उसे पता नहीं कि जो बेटा एक बूढे नौकर के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हो सका वह आज नहीं कल, जब उसका बाप भी बूढ़ा हो जायेगा। उसके प्रति भी प्रेम पूर्ण नहीं रह पायेगा। तब वह बाप पछतायेंगा। कि मेरा लड़का मेरे प्रति प्रेमपूर्ण नहीं है। लेकिन इस बाप को पता ही नहीं कि लड़का प्रेमपूर्ण हो सकता था। उसके प्रति भी, अगर जो भी आसपास थे, सबके प्रति प्रेमपूर्ण होने की शिक्षा दी गयी होती। तो वह उसके प्रति भी प्रेमपूर्ण होता।
प्रेम स्वभाव की बात है। संबंध की बात नहीं है।
प्रेम रिलेशनशिप नहीं है। प्रेम है ‘’स्टेट ऑफ माइंड’’ मनुष्य के व्यक्तित्व का भीतरी अंग है।
तो हमें प्रेम पूर्ण होने की दूसरी दीक्षा दी जानी चाहिए—एक-एक चीज के प्रति। अगर बच्चा एक किताब को भी गलत ढंग से रखे तो गलती बात है, उसे उसी क्षण टोकना चाहिए कि ये तुम्हारे व्यक्तित्व के प्रति शोभा दायक नहीं है। कि तुम इस भांति किताब को रखो। कोई देखेगा,कोई सुनेगा, कोई पायेगा कि तुम किताब के साथ दुर्व्यवहार किये हो? तुम कुत्ते के साथ गलत ढंग से पेश आये हो यह तुम्हारे व्यक्तित्व की गलती है।
एक फकीर के बाबत मुझे ख्याल आता है। एक छोटा सा फकीर का झोंपड़ा था। रात थी, जोर से वर्षा होती थी। रात के बारह बजे होंगे। फकीर और उसकी पत्नी दोनों सोते थे। किसी आदमी ने दरवाजे पर दस्तक दी। छोटा सा झोंपड़ा कोई शायद शरण चाहता था। उसकी पत्नी से उसने कहा कि द्वार खोल दें, कोई द्वार पर खड़ा है, कोई यात्री कोई अपरिचित मित्र।
सुनते है उसकी बात, उसने कहां, कोई अपरिचित मित्र, हमारे तो परिचित है, वह भी मित्र नहीं है। उसने कहां की कोई अपरिचित मित्र,प्रेम का भाव है।
कोई अपरिचित मित्र द्वार पर खड़ा है, द्वार खोल उसकी पत्नी ने कहां,लेकिन जगह तो बिलकुल नहीं है। हम दो के लायक ही मुश्किल से है। कोई तीसरा आदमी भीतर आयेगा तो हम क्या करेंगे।
उस फकीर ने कहा,पागल यह किसी अमीर का महल नहीं है,जो छोटा पड़ जाये। यह गरीब को झोंपड़ा है। अमीर का महल छोटा पड़ जाता है। हमेशा एक मेहमान आ जाये तो महल छोटा पड़ जाता है। यह गरीब की झोपड़ी है।
उसकी पत्नी ने कहां—इसमे झोपड़ी....अमीर और गरीब का क्या सवाल है? जगह छोटी है।
उस फकीर ने कहा कि जहां दिल में जगह बड़ी हो वहां, झोपड़ी महल की तरह मालूम हो जाती है। और जहां दिल में छोटी जगह हो, वहां झोंपड़ा तो क्या महल भी छोटा और झोंपड़ा हो जाता है। द्वार खोल दो, द्वार पर खड़े हुए आदमी को वापस कैसे लौटाया जा सकता है? अभी हम दोनों लेटे थे, अब तीन लेट नहीं सकेंगे,तीन बैठेंगे। बैठने के लिए काफी जगह है।
मजबूरी थी, पत्नी को दरवाजा खोल देना पडा। एक मित्र आ गया, पानी से भीगा हुआ। उसके कपड़े बदले और वे तीनों बैठ कर गपशप करने लग गये। दरवाजा फिर बंद कर दिया।
फिर किन्हीं दो आदमियों ने दस्तक दी। अब उस मित्र ने उस फकीर को कहा, वह दरवाजे के पास था, कि दरवाजा खोल दो। मालूम होता है कि कोई आया है। उसी आदमी ने कहा, कैसे खोल दूँ दरवाजा, जगह कहां हे यहां।
वह आदमी अभी दो घड़ी पहले आया था खुद और भूल गया वह बात की जिस प्रेम ने मुझे जगह दी थी। वह मुझे जगह नहीं दी थी, प्रेम था उसके भीतर इस लिए जगह दी थी। अब कोई दूसरा आ गया जगह बनानी पड़ेगी।
लेकिन उस आदमी ने कहा,नहीं दरवाजा खोलने की जरूरत नहीं; मुश्किल से हम तीन बैठे हे।
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहां, बड़े पागल हो। मैंने तुम्हारे लिए जगह नहीं की थी। प्रेम था, इसलिए जगह की थी। प्रेम अब भी है, वह तुम पर चुक नहीं गया और समाप्त नहीं हो गया। दरवाजा खोलों, अभी हम दूर-दूर बैठे है। फिर हम पास-पास बैठ जायेंगे। पास-पास बैठने के लिए काफी जगह है। और रात ठंडी है, पास-पास बैठने में आनंद ही और होगा।
दरवाजा खोलना पडा। दो आदमी भीतर आ गये। फिर वह पास-पास बैठकर गपशप करने लगे। और थोड़ी देर बीती है और रात आगे बढ़ गयी है और वर्षा हो रही है ओर एक गधे ने आकर सर लगाया दरवाजे से। पानी में भीग गया था। वह रात शरण चाहता था।
उस फकीर ने कहा कि मित्रों, वे दो मित्र दरवाजे पर बैठे हुए थे जो पीछे आये थे; दरवाजा खोल दो, कोई अपरिचित मित्र फिर आ गया।
उन लोगों ने कहा, वह मित्र वगैरह नहीं है, वह गधा है। इसके लिए द्वार खोलने की जरूरत नहीं है।
उस फकीर ने कहा कि तुम्हें शायद पता नहीं, अमीर के द्वार पर आदमी के साथ भी गधे जैसा व्यवहार किया जाता है। यह गरीब की झोपड़ी है, हम गधे के साथ भी आदमी जैसा व्यवहार करेने की आदत भर हो गई है। दरवाजा खोल दो।
पर वे दोनों कहने लगे, जगह।
उस फकीर ने कहा, जगह बहुत है; अभी हम बैठे है, अब खड़े हो जायेंगे। खड़े होने के लिए काफी जगह है। और फिर तुम घबडाओं मत, अगर जरूरत पड़ेगी तो मैं हमेशा बहार होने के लिए तैयार हूं। प्रेम इतना कर सकता है।
एक लिविंग एटीट्यूड, एक प्रेमपूर्ण ह्रदय बनाने की जरूरत है। जब प्रेम पूर्ण ह्रदय बनता है। तो व्यक्तित्व में एक तृप्ति का भाव एक रसपूर्ण तृप्ति.....।
क्या आपको कभी ख्याल है कि जब भी आप किसी के प्रति जरा-से प्रेमपूर्ण हुए, पीछे एक तृप्ति की लहर छूट गयी है। क्या आपको कभी भी खयाल है कि जीवन में तृप्ति के क्षण वही रहे है। जो बेशर्त प्रेम के क्षण रहे होंगे। जब कोई शर्त न रही होगी प्रेम की। और जब आपने रास्ते चलते एक अजनबी आदमी को देखकर मुस्कुरा दिया होगा—उसके पीछे छूट गयी तृप्ति का कोई अनुभव है? उसके पीछे साथ आ गया एक शांति का भाव। एक प्राणों में एक आनंद की लहर का कोई पता है। जब राह चलते किसी आदमी को उठा लिया हो, किसी गिरते को संभाल लिया हो,किसी बीमार को एक फूल दे दिया हो। इसलिए नहीं कि वह आपकी मां है, इसलिए नहीं की वह आपका पिता है। नहीं वह आपका कोई नहीं है। लेकिन एक फूल किसी बीमार को दे देना आनंद पूर्ण है।
व्यक्तित्व में प्रेम की संभावना बढ़ती जानी चाहिए। वह इतनी बढ़ जानी चाहिए—पौधों के प्रति, पक्षियों के प्रति पशुओं के प्रति, आदमी के प्रति, अपरिचित के प्रति, अंजान लोगों के प्रति, विदेशियों के प्रति, जो बहुत दूर है उसके प्रति, प्रेम हमारा बढ़त चला जाए।
जितना प्रेम हमारा बढ़ता है, उतनी ही सेक्स की जीवन में संभावना कम होती चली जाती है।
प्रेम और ध्यान दोनों मिलकर उस दरवाजे को खोल देते है, जो दरवाजा परमात्मा की और जाता है।
प्रेम+ध्यान=परमात्मा। प्रेम और ध्यान का जोड़ हो जाये और परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।
और उस उपलब्धि से जीवन में ब्रह्मचर्य फलित होता है। फिर सारी उर्जा एक नये ही मार्ग पर ऊपर चढ़ने लगती है। फिर बह-बह कर निकल जाती है। फिर जीवन से बाहर निकल-निकल कर व्यर्थ नहीं हो जाती। फिर जीवन के भीतरी मार्गों पर गति करने लगती है। उसका एक ऊर्ध्वगमन, एक ऊपर की तरफ की यात्रा शुरू होती है।
अभी हमारी यात्रा नीचे की तरफ है। सेक्स ऊर्जा का अधोगमन है, नीचे की तरफ बह जाना है। ब्रह्मचर्य ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है, उपर की तरफ उठ जाना है।
प्रेम और ध्यान ब्रह्मचर्य के सूत्र है।
तीसरी बात कल आपसे करने को हूं कि ब्रह्मचर्य अपलब्ध होगा तो क्या फल होगा? क्या होगी उपलब्धि,क्या मिल जायेगा?
ये दो बातें मैंने आज आपसे कहीं—प्रेम और ध्यान। मैंने यह कहा है कि छोटे बच्चों से इनकी शिक्षा शुरू हो जानी चाहिए। इससे आप यह मत सोच लेना कि अब तो हम बच्चे नहीं रहे। इसलिए करने को कुछ बाकी नहीं बचा। यह आप मत सोच कर चले जाना। अन्यथा मेरी मेहनत फिजूल हो जायेगी। आप किसी भी उम्र के हो, यह काम शुरू किया जा सकता है। यह काम कभी भी शुरू किया जा सकता है। हालांकि जितनी उम्र बढ़ती चली जाती है, उतनी मुश्किल होती चली जाती है। बच्चों के साथ हो सके सौभाग्य, लेकिन कभी भी हो सके सौभाग्य। इतनी देर कभी नहीं हुई है कि हम कुछ भी न कर सकें। हम आज शुरू कर सकते है।
और जो लोग सीखने के लिए तैयार है, वे बूढ़े भी बच्चों जैसे ही होते है। वे बुढ़ापे में भी शुरू कर सकते है। अगर उनकी सीखने की क्षमता है,अगर लर्निंग का एटीट्यूड है, अगर वे इस ज्ञान से नहीं भर गये है कि हमने सब जान लिया और सब पा लिया है। तो वे सिख सकते है। और वे छोटे बच्चों की भांति नई यात्रा शुरू कर सकते है।
बुद्ध के पास एक भिक्षु कुछ वर्षों से दीक्षित था। एक दिन बुद्ध ने उससे पूछा: ‘’भिक्षु तुम्हारी उम्र क्या है।‘’ उस भिक्षु ने कहा, भंते, मेरी उम्र पाँच वर्ष की होगी। बुद्ध कहने लगे,पाँच वर्ष, तुम तो कोई सत्तर वर्ष के मालूम होते हो। झूठ बोलते हो भिक्षु।
तो उस भिक्षु ने कहा, लेकिन पाँच वर्ष पहले ही मेरी जीवन में ध्यान की किरण फूटी। पाँच वर्ष पहले ही मेरे जीवन में प्रेम की वर्षा हुई। उसके पहले मैं जीता था, वह सपने में जीने जैसा था। नींद में जीने जैसा था। उसकी गिनती में अब जीवन में नहीं करता। सोना भी कोई जीना होता है। उसे कैसे करू?
जिंदगी तो इधर पाँच वर्ष से ही शुरू हुई है। यहीं पाँच वर्ष में अपनी आयु के मानता हूं।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहां, भिक्षुओं इस बात को खयाल में रख लेना। अपनी उम्र आज से तुम भी इस तरह जोड़ना। यही उम्र को नापने का ढंग है।
अगर प्रेम और ध्यान का जन्म नहीं हुआ है तो उम्र फिजूल चली गयी। अभी आपकी ठीक जन्म भी नहीं हुआ। और कभी भी उतनी देर नहीं हुई है, जब कि हम प्रयास करें, श्रम करें और हम अपने नये जन्म को उपल्बध न हो जाये।
इसलिए मेरी बात से यह नतीजा मत निकाल लेना आप कि आप तो अब बचपन के पार हो चुके, इसलिए यह बात आने वाले बच्चों के लिए है। कोई आदमी किसी भी क्षण इतनी दूर नहीं निकल गया है कि वापस नहीं लौट सके। कोई आदमी कितने ही गलत रास्तों पर चला हो, ऐसी जगह नहीं पहुंच गया है कि ठीक रास्ता उसे दिखाई न पड़ सके। कोई आदमी कितने ही हजारों वर्षों से अंधकार में रह रहा हो, इसका मतलब यह नहीं है कि वह दिया जलायेगा तो अंधकार कहेगा कि मैं हजार वर्ष पुराना हूं। इसलिए नहीं टूटता। दिया जलाने से एक दिन का अंधकार भी टूटता है। और हजार वर्ष का अंधकार भी टूटता है। दिया जलाने की चेष्टा बचपन में आसान हो सकती है, बाद में थोड़ी मुश्किल हो जाती है। मात्र यही भेद है।
लेकिन कठिनाई का अर्थ असंभावना नहीं है। कठिनाई का अर्थ है, थोड़ा ज्यादा श्रम। कठिनाई का अर्थ है, थोड़ी और मेहनत, और संकल्प। कठिनाई का अर्थ है: थोड़ा ज्यादा—ज्यादा लगन पूर्वक। ज्यादा सातत्य से तोड़ना पड़ेगा। व्यक्तित्व की जो बंधी धाराएं है। उनको और नये मार्ग खोलने पड़ेंगे।
लेकिन जब नये मार्ग की जरा सी भी किरण फूटनी शुरू होती है तो सारा श्रम ऐसा लगता है कि हमने कुछ भी नहीं किया है। और बहुत कुछ पा लिया है। जब एक किरण भी आती है उस आनंद की, उस सत्य की उस प्रकाश की तो लगता है। कि हमने तो बिना कुछ किये पा लिया है; क्योंकि हमने जो किया था, उसका तो कोई भी मूल्य नहीं था। जो हाथ में आ गया ळ वह तो अमूल्य है। वह तो अमूल्य है। इसलिए यह भाव मन में आप न लेंगे। ऐसी मेरी प्रार्थना है।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना; उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहित हूं और अंत में सबके भी तर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
( क्रमश: अगले अंक में ..................देखें)
ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
प्रवचन—3
गोवा लिया टैंक, बम्बई,
29—सितम्बर—1968
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