संभोग से समाधि की और—19
समाधि : संभोग-उर्जा का अध्यात्मिक नियोजन—5
एक मित्र ने इस संबंध में और एक बात पूछी है। उन्होंने पूछा है कि आपको हम सेक्स पर कोई आथोरिटी कोई प्रामाणिक व्यक्ति नहीं मान सकते है। हम तो आपसे ईश्वर के संबंध में पूछने आये थे। और आप सेक्स के संबंध में बताने लगे। हम तो सुनने आये थे ईश्वर के संबंध में तो आप हमें ईश्वर के संबंध में बताइए।
उन्हें शायद पता नहीं कि जिस व्यक्ति को हम सेक्स के संबंध में भी आथोरिटी नहीं मान सकते। उससे ईश्वर के संबंध में पूछना फिजूल है। क्योंकि जो पहली सीढ़ी के संबंध में भी कुछ नहीं जानता। उससे आप अंतिम सीढ़ी के संबंध में पूछना चाहते हो? अगर सेक्स के संबंध में जो मैंने कहा वह स्वीकार्य नहीं है। तो फिर तो भूलकर ईश्वर के संबंध में मुझसे पूछने कभी मत आना, क्योंकि वह बात ही खत्म हो गयी पहल कक्षा के योग्य भी मैं सिद्ध नहीं हुआ। तो अंतिम कक्षा के योग्य कैसे सिद्ध हो सकता हूं। लेकिन उनके पूछने का कारण है।
अब तक काम और राम को दुश्मन की तरह देखा गया है। अब तक ऐसा समझा जाता रहा है कि जो राम की खोज करते है, उनको काम से कोई संबंध नहीं है। और जो लोग काम की यात्रा करते है। उनको अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है। ये दोनों बातें बेवकूफी की है।
आदमी काम की यात्रा भी राम की खोज के लिए ही करता है। वह काम का इतना तीव्र आकर्षण, राम की ही खोज है और इसीलिए काम में कभी तृप्ति नहीं मिलती। कभी ऐसा नहीं लगता कि सब पूरा हो गया है। वह जब तक राम न मिल जाये। तब तक लग भी नहीं सकता।
और जो लोग काम के शत्रु होकर राम को खोजते है, राम की खोज नहीं है वह। वह सिर्फ राम के नाम में काम से एस्केप है, पलायन है। काम से बचना है। इधर प्राण घबराते है, डर लगता है तो राम चदरिया ओढ़ कर उसमें छिप जाते है। और राम-राम-राम जपते मिले तो जरा देखना वह कहीं काम की याद से तो नहीं बच रहे।
जब भी कोई आदमी राम-राम-राम जपते मिले तो जरा गौर करना। उसके भीतर राम-राम के जप के पीछे काम का जप चल रहा होगा। सेक्स का जप चल रहा होगा। स्त्री को देखेगा और माला फेरने लगेगा। कहेगा, राम-राम। वह स्त्री दिखी कि वह ज्यादा जोर से माला फेरता है। ज्यादा जोर से राम-राम कहता है।
क्यों?
वह भीतर जो काम बैठा है, वह धक्के मार रहा है। राम का नाम ले-लेकर उसे भुलाने की कोशिश करता है। लेकिन इतनी आसान तरकीबों से जीवन बदलते होते तो दुनिया कभी की बदल गयी होती। उतना आसान रास्ता नहीं हे।
तो मैं आपसे कहना चाहता हूं। कि काम को समझना जरूरी है अगर आप अपने राम की और परमात्मा की खोज को भी समझना चाहते है। क्यों? यह इसीलिए मैं कहता हूं कि एक आदमी बंबई से कलकत्ता की यात्रा करना चाहे; वह कलकत्ता के संबंध में पता लगाये कि कलकत्ता कहां है किस दिशा में है? लेकिन उसे यही पता न हो कि बंबई कहां है और किस दिशा में है और कलकत्ता की वह यात्रा करना चाहे, तो क्या वह कभी सफल हो सकेगा। कलकत्ता जाने के लिए सबसे पहले यह पता लगाना जरूरी है कि बंबई कहां हे। जहां मैं हूं, वह किस दिशा में है?फिर कलकत्ता की तरफ दिशा विचार की जा सकती हे। लेकिन मुझे यही पता नहीं कि बंबई कहां है, तो कलकत्ता के बाबत की सारी जानकारी फिजूल है....क्योंकि यात्रा मुझे बंबई से शुरू करना पड़ेगी। यात्रा का प्रारंभ बंबई से करना है। और प्रारंभ पहले है, अंत बाद में।
आप कहां खड़े है?
राम की यात्रा करना चाहते है, वह ठीक। भगवान तक पहुंचना चाहते है वह ठीक। लेकिन खड़े कहां है। खड़े तो काम में है, खड़े तो वासना में है, खड़े तो सेक्स में है। वह आपका निवास गृह है जहां से आपको कदम उठाने है। और यात्रा करनी है। तो पहले तो उस जगह को समझ लेना जरूरी है, जहां हम है, जो है उसे, जो एक्जुअलटि, पहले जो वास्तविक है उसे पहले समझ लेना जरूरी है। तब हम उसे भी समझ सकते है जो संभावना है। जो पासिबिलटि है जो हम हो सकते है, उसे जानने के लिए,जो हम है उसे पहले जान लेना जरूरी है। अंतिम कदम को समझने के पहले पहला कदम समझ लेना जरूरी है। क्योंकि पहला कदम ही अंतिम कदम तक पहुंचाने का रास्ता बनेगा। और अगर पहला कदम ही गलत होगा तो अंतिम कदम कभी भी सही नहीं होने वाला है।
राम से भी ज्यादा महत्वपूर्ण काम को समझना है, परमात्मा से भी ज्यादा महत्वपूर्ण सेक्स को समझना है,क्यों इतना महत्वपूर्ण है?
इसी लिए महत्वपूर्ण है कि अगर परमात्मा तक पहुंचना है तो सेक्स को बिना समझे आन नहीं पहुंच सकते। इसलिए यह मत पूछे।
रह गयी अथरीटी की बात कि मैं आथोरिटी हूं या नहीं—यह कैसे निर्णय होगा। अगर मैं ही इस संबंध में कुछ कहूंगा तो वह निर्णायक नहीं रहेगा, क्योंकि मेरे संबंध में ही निर्णय होना है। अगर मैं ही कहूं मैं अथरीटी हूं तो उसका कोई मतलब नहीं। अगर मैं कहूं कि मैं अथरीटी नहीं हूं। तो उसका भी कोई मतलब नहीं है। क्योंकि मेरे दोनों वक्तव्य के संबंध में विचारणीय है कि अथारिटेटिव आदमी कह रहा है। गैर-अथारिटेटिव। मैं जो भी कहूंगा इस संबंध में वह फिजूल है। मैं अथरीटी हूं या नहीं यह तो आप थोड़े सेक्स की दुनिया में प्रयोग करके देखना। जब अनुभव आयेगा तो पता चलेगा। कि जो मैंने कहा था वह अथरीटी थी या नहीं, उसके बिना कोई रास्ता नहीं है।
मैं आपसे कहता हूं कि तैरने का यह रास्ता है, आप कहें कि , लेकिन हम कैसे मानें कि आप तैरने के संबंध में प्रामाणिक बात कर रहे है। तो मैं कहता हूं कि चलिए, आपको साथ लेकर नदी में उतरा जा सकता है। आपको नदी में उतारे देता हूं। मैने जो कहा है आपको, अगर वह कारगर हो जाये पार होने में हाथ पैर चलाने में और तैरने में तो आप समझना कि जो मैंने कहा है, वह कुछ जानकर कहा है।
उन्होने यह भी कहा है कि फ्रायड अथरीटी हो सकते है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि जो मैं कह रह हूं,उसपर शायद फ्रायड दो कौड़ी भी नहीं जानते। फ्रायड मानसिक तल से कभी उपर उठे ही नहीं। उनको कल्पना भी नहीं है। आध्यात्मिक सेक्स की। फ्रायड की सारी जानकारी रूग्ण सेक्स की है—हिस्टेरिक, होमोसेक्सुअलिटी, मास्टरबेशन—इस सबकी खोजबीन है। रूग्ण सेक्स, विकृत सेक्स के बाबत खोजबीन है, पैथोलाजिकल, है। बीमार की चिकित्सा की वह खोज है। फ्रायड एक डाक्टर है फिर पश्चिम में जिन लोगों को उसने अध्यान किया, वे मन के तल के सेक्स के लोग है। उसके पास एक भी अध्यात्मिक नहीं है। एक भी केस हिस्ट्री नहीं जिसको स्प्रिचुअल सेक्स कहा जा सके।
तो अगर खोज करनी है कि जो मैं कह रहा हूं, वह कहां तक सच है, तो सिर्फ एक दिशा में खोज हो सकती है, वह दिशा है तंत्र। और तंत्र के बाबत हमने हजारों साल से सोचना बंद कर दिया है। तंत्र ने सेक्स को स्प्रिचुअल बनाने का दुनिया में सबसे पहला प्रयास किया था। खजुराहो में खड़े मंदिर, पुरी और कोनार्क में मंदिर सबूत है। कभी आप खजुराहो गये है? कभी आपने जाकर खजुराहो की मूर्तियां देखी?
तो आपको दो बातें अद्भुत अनुभव होगी। पहली तो बात यह है कि नग्न मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर भी आपको ऐसा नहीं लगेगा कि उनमें जरा भी कुछ गंदा है। जरा भी कुछ अगली है। नग्न मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि कुछ कुरूप है, कुछ बुरा है। बल्कि मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर एक शांति एक पवित्रता का अनुभव होगा जो बड़ी हैरानी की बात है। वे प्रतिमाएं आध्यात्मिक सेक्स काक जिन लोगों ने अनुभव किया था। उन शिल्पियों से निर्मित करवायी गई थी।
उन प्रतिमाओं के चेहरों पर.....आप एक सेक्स से भरे हुए आदमी को देखें उसकी आंखे देखें उसका चेहरा देखें,वह घिनौना, घबरानें वाला, कुरूप प्रतीत होगा। उसकी आंखों से एक झलक मिलती हुई मालूम होगी, जो घबरानें वाली और डराने वाली होगी। प्यारे से प्यारे आदमी को, अपने निकटतम प्यारे से प्यारे व्यक्ति को भी स्त्री जब सेक्स से भरा हुआ पास आता हुई देखती है तो उसे दुश्मन दिखायी पड़ता है, मित्र नहीं दिखाई पड़ता। प्यारी से प्यारी स्त्री को अगर कोई पुरूष अपने निकट सेक्स से भरा हुआ आता हुआ दिखायी देगा तो उसे उसके भीतर नरक दिखायी देगा। स्वर्ग नहीं दिखायी पड़ेगा।
लेकिन खजुराहो की प्रतिमाओं को देखें तो उनके चेहरे को देख कर ऐसा लगता है। जैसे बुद्ध का चेहरा हो,महावीर का चेहरा हो, मैथुन की प्रतिमाओं और मैथुन रत जोड़े के चेहरे पर जो भाव है, वे समाधि के है, और सारी प्रतिमाओं को देख लें और पीछे एक हल्की सी शांति की झलक छूट जायेगी। और कुछ भी नहीं। और एक आश्चर्य आपको अनुभव होगा।
आप सोचते होंगे कि नंगी तस्वीरे और मूर्तियां देखकर आपको भीतर कामुकता पैदा होगी। तो मैं आपसे कहता हूं फिर आप देर न करें और सीधे खजुराहो चल जायें। खजुराहो पृथ्वी इस समय अनूठी चीज है।
लेकिन हमारे कई नीति शास्त्री पुरूषोतम दास टंडन और उनके कुछ साथी इस सुझाव के थे कि खजुराहो के मंदिर पर मिट्टी छाप कर दीवालें बंद कर देनी चाहिए, क्योंकि देखने से वासना पैदा हो सकती है। मैं हैरान हो गया।
खजुराहो के मंदिर जिन्होंने बनाये थे, उनका ख्याल यह था कि इन प्रतिमाओं को अगर कोई बैठकर घंटे भर देखे तो वासना से शून्य हो जायेगा। वे प्रतिमाएं आब्जेक्ट्स फार मेडिटेशन रहीं हजारों वर्ष तक। वे प्रतिमाएं ध्यान के लिए ऑब्जेक्स का काम करती है। जो लोग अति कामुक थे। उन्हें खजुराहो के मंदिर के पास भेज कर उन पर ध्यान करवाने के लिए कहा जाता था। कि तुम ध्यान करो—इन प्रतिमाओं को देखो और इनमें लीन हो जाओ।
और यह आश्चर्य कि बात है, हालांकि हमारे अनुभव में है, लेकिन हमें ख्याल नहीं। आपको पता है रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों और आप रास्ते से चले जा रहे हों, तो आपका मन होता है कि खड़े होकर उनकी लड़ाई देखे। लेकिन क्यों? आपने कभी ख्याल किया लड़ाई देखने से आपको क्या फायदा है? हजार जरूरी काम छोड़कर आप आधे घंटे ते दो आदमियों की मुक्केबाजी देख सकते है, उससे क्या फायदा है?
शायद आपको पता नहीं फायदा एक है। दो आदमियों को लड़ते देखकर आपके भीतर भी जो लड़ने की प्रवृति है, वह विसर्जित होती है। जिसका निकास हो जाता है। वह इवोपरेट हो जाती है।
अगर मैथुन की प्रतिमा को कोई घंटे भर तक शांत बैठकर ध्यान मग्न होकर देखे तो उसके भीतर जो मैथुन करने का पागल भाव है, वह विलीन हो जाता है।
एक मनोवैज्ञानिक के पास एक आदमी को लाया गया था। वह एक दफ्तर में काम करता है। और अपने मालिक से अपने बॉस से बहुत रूष्ट है। मालिक उससे कुछ भी कहता है तो उसे बहुत अपमान मालूम होता है। और उसके मन में होता है कि निकालू जूता और मार दूँ।
लेकिन मालिक को जूता कैसे मारा जो सकता है। हालांकि ऐसे नौकर कम ही होंगे। जिनके मन में ये ख्याल नहीं आता होगा। कि निकालू जूता और मार दूँ। ऐसा नौकर खोजना मुश्किल है। अगर आप मालिक है तो भी आपको पता होगा और अगर आप नौकर है तो भी आपको पता होगा।
नौकर के मन में नौकर होने की भारी पीडा है। और मन होता है कि इसका बदला ले लूं। लेकिन नौकर अगर बदला ले सकता तो नौकर होता क्यों? तो बह बेचारा मजबूर है और दबाये चला जाता है। दबाये चला जाता है।
फिर तो हालत उसकी ऐसी रूग्ण हो गयी कि उसे डर पैदा हो गया कि किसी दिन आवेश में मैं जूता मार ही न दूँ। वह जूता घर ही छोड़ जाता है। लेकिन दफ्तर में उसे जूते की दिन भर याद आती है। और जब मालिक दिखायी देता है वह पैर टटोलता है। कि जूता कहां है—लेकिन जूता तो वह घर छोड़ आया है। और खुश होता है कि अच्छा हुआ। मैं छोड़ आया। किसी दिन आवेश में क्षण में निकल आये जूता तो मुश्किल होगी।
लेकिन घर जूता छोड़ आने से जूते से मुक्ति नहीं होती। जूता उसका पीछा करने लगा। वह कागज पर कुछ भी बनाता है तो जूता बन जाता है। वह रजिस्टर पर कुछ ऐसों ही लिख रहा है कि पाता है जूते ने आकार ले लेना शुरू कर दिया। उसके प्राणों में जूता घिरनें लगा। यह बहुत घबरा गया है उसे ऐसा डर लगने लगा है धीरे-धीरे कि मैं किसी भी दिन हमला कर सकता हूं। तो उसने अपने घर आकर कहा कि अब मुझे नौकरी पर जाना ठीक नहीं, मैं छूटी लेना चाहता हूं; क्योंकि अब हालत भी ऐसी हो गयी कि मैं दूसरे का जूता निकालकर भी मार सकता हूं। और अपने जूते की जरूरत नहीं रह गयी। मेरे हाथ दूसरे लोगों के पैरों की तरफ भी बढ़ने की कोशिश करते है।
तो घर के लोगों ने समझा कि वह पागल हो गया है। उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले गये। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, इसकी बीमारी बड़ी छोटी सी है। इसके मालिक की एक तस्वीर घर में लगा लो और उससे कहो, रोज सुबह पाँच जूता धार्मिक भाव से मारा करे। पाँच जूता मारे तब दफ्तर जाये—बिल्कुल रिलीजसली। ऐसा नहीं की किसी दिन चुक जाये। जैसे लोग ध्यान, जप करते है—बिलकुल वक्त पर पाँच जूता मारे। दफ्तर से लौटकर पाँच जूता मारे। वह आदमी पहले तो बोला, यह क्या पागलपन की बातें है। लेकिन भीतर से उसे खुशी मालूम हो रही थी। वह हैरान हुआ उसने कहा, लेकिन मुझे भीतर खुशी मालूम हो रही है।
तस्वीर टांग ली गयी। और वह रोज पाँच जूते मारकर दफ्तर गया। पहले दिन ही जब वह पाँच जूते मारकर दफ्तर गया तो उसे एक बड़ा अनुभव हुआ। मालिक के प्रति उसने दफ्तर में उतना क्रोध अनुभव नहीं किया। और 15 दिन के भीतर तो वह मालिक के प्रति अत्यंत विनयशील हो गया। मालिक को भी हैरानी हुई। उसे तो कुछ पता नहीं कि भी क्या चल रहा है। उसने उसको पूछा कि तुम आजकल बहुत आज्ञाकारी, बहुत विनम्र, बहुत शांत दिल हो गये हो। बात क्या है? उसने कहा कि मत पूछिए, नहीं तो सब गूडगोबर हो जायेगा।
क्या हुआ—तस्वीर को जूते मारने से कुछ हो सकता है। लेकिन तस्वीर को जूते मारने से वह जो जूते मारने का भाव है, वह तिरोहित हुआ, वह इवोपरेट हुआ, वह वाष्पीभूत हुआ।
खजुराहो के मंदिर या कोणार्क और पुरी के मंदिर जैसे मंदिर सारे देश के गांव-गांव में होने चाहिए।
बाकी मंदिरों की कोई जरूरत नहीं है। वे बेवकूफी के सबूत है। उनमें कुछ नहीं है। उनमें न कोई वैज्ञानिकता है न कोई अर्थ है। न कोई प्रयोजन है। वे निपट गँवारी के सबूत है। लेकिन खजुराहो के मंदिर जरूरी अर्थपूर्ण है।
जिस आदमी का मन सेक्स से बहुत भरा हो, वह जाकर इन मंदिरों कि मूर्तियों पर ध्यान करे। वह हलका होकर लौटेगा। शांत होकर लौटेगा। तंत्रों ने जरूर सेक्स को आध्यात्मिक बनाने की कोशिश की थी। लेकिन इस मुल्क के नीति शास्त्री अरे मॉरल प्रीचर्स है, उन दुष्टों ने उनकी बात काक समाज तक नहीं पहुंचने दिया। वह मेरी बात भी नहीं पहुंचने देना चाहते।
( क्रमश: अगले अंक में ..................देखें)
ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
प्रवचन—4
गोवा लिया टैंक, बम्बई,
2 अक्टूबर—1968,
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