संभोग से समाधि की और—23
यौन : जीवन का ऊर्जा-आयाम–6
इस लिए मैं तंत्र के पक्ष में हूं, त्याग के पक्ष में नहीं हूं। और मेरा मानना है जब तक धर्म दुनिया से समाप्त नहीं होते, तब तक दुनिया सुखी नहीं हो सकती। शांत नहीं हो सकती। सारे रोग की जड़ इनमें छिपी है।
तंत्र की दृष्टि बिलकुल उल्टी है। तंत्र कहता है कि अगर स्त्री पुरूष के बीच आकर्षण है तो इस आकर्षण को दिव्य बनाओ। इससे भागों मत, इसको पवित्र करो। अगर काम-वासना इतनी गहरी है तो उससे तुम भाग सकोगे भी नहीं। इस गहरी काम वासना को ही क्यों ने परमात्मा से जुड़ने का मार्ग बनाओ। और अगर सृष्टि काम से हो रही है तो परमात्मा को हम काम वासना से मुक्त नहीं कर सकते। नहीं तो कुछ तो कुछ होने का उपाय नहीं है।
अगर कहीं भी कोई शक्ति है इस जगत में तो उसका हमें किसी ने किसी रूप में काम वासना से संबंध जोड़ना ही पड़ेगा। नहीं तो इस सृष्टि के होने का कहीं कोई आधार नहीं रह जाता। इस सृष्टि में जो कुछ हो रहा है, वह किसी ने किसी रूप में परमात्मा से जुड़ा है। और हम आंखें खोलकर चारों तरफ देखें तो सारा काम को फैलाव है। आदमी है तो हम बेचैन हो जाते है—वे ऋषि मुनि भी। आदमी बेचैन हो जाता है, लेकिन उस तरफ उनको ख्याल में नहीं आता।
सुबह जब पक्षी गीत गा रहे है तो उनको लगता है कि बड़ी दिव्य बात हो रही है। लेकिन वह पक्षी जो पुकार लगा रहा है। वह सब काम-वासना है। और जब फूल खिलते है तो ऋषि की वाटिका में तो वह सोचता है बड़ी अदभुत बात है। और फूलों को जाकर भगवान को चढ़ा रहा है। लेकिन सब फूल काम वासना के रूप है। वे वीर्याणु है। उनमें....उनमें छिपा बीज है जन्म का। और फूलों पर तितलियां घूम कर उनके वीर्याणु को लेकिन दूसरे फूलों से जाकर मिला रही है। तो फूल देखकर तो ऋषि खुश होता है। यह उसके ख्याल में नहीं आ रह कि फूल जो है, वह काम वासना के रूप है। पक्षी का गीत सुनकर खुश होता है। मोर नाचता है तो खुश होता है। आदमी से क्या परेशानी है।
वह काम,लेकिन आदमी के काम से वह परिचित है वह उसकी खुद की पीड़ा है। बाकी पूरी प्रकृति काम का फैलाव है। यहां जो भी दिखाई पड़ रहा है। वह सबके भीतर काम छिपा हुआ है। सारा फैलाव सारा खेल उसका तो जो काम इतने गहरे में है। वह परमात्मा से जुड़ा होगा।
तंत्र कहता है: सबसे ज्यादा गहरी चीज काम वासना है, क्योंकि उससे ही जन्म होता है। उससे ही जीवन फैलता है। यहां जो भी दिखाई पड़ रहा है। वह सबके भीतर काम छिपा हुआ है। सारा फैलाव सारा खेल उसका, तो इस गहरे तंतु का हम उपयोग कर लें। इस तंतु से लड़े न, बल्कि इस तंतु को धारा बना लें, जिसमें हम बह जाएं।
और काम वासना को अगर कोई धारा बना ले, ध्यान बना ले, समाधि बना ले। तो दोहरे परिणाम होत है। वह जो ऋषि निरन्तर चाहता है—त्याग वादी—का छुटकारा हो जाय, वि भी हो जाता है। और दूसरा परिणाम यह होता है कि यह व्यक्ति काम—वासना से भी छूट जाता है। और काम वासना के कारण अहंकार से भी छूट जाता है।
तंत्र की साधना ही स्वस्थ साधना है।
तो मैं तो विरोध में नहीं हूं। न तो मैं विरोध में हूं कि इस पर्त से बचो। न बच सकते है। ऐसा ऊपर से बचेंगे तो भीतर अप्सराएं सताएगी। उससे इस पृथ्वी की स्त्रियों में कुछ ज्यादा उपद्रव नहीं। बचने की बात ही मैं मानता हूं,गलत।
भागना क्यों, डरना क्यों जीवन जैसा है, उसके तथ्यों में जागरूक होना। और जब मेरे मन में किसी चीज क प्रति आकर्षण है तो इस आकर्षण को समझने की कोशिश करूं। क्या है यह आकर्षण। क्यों है यह आकर्षण? और इस आकर्षण को मैं कैसे सृजनात्मक करूं कि इससे मेरा जीवन खिले और विकसित हो। यह मेरा विध्वंस न बन जाए। और इस आकर्षण को मैं उपयोग कैसे करूं। यह सवाल है।
तो इस आकर्षण का गहरा उपयोग ध्यान के लिए हो सकता है। और स्त्री–पुरूषों की सन्निधि बड़ी मुक्त दायी हो सकती है। मगर कभी ऐसा हुआ तो मनुष्य ओर ज्यादा समझदार और ज्यादा विचारपूर्ण हुआ। तब हम स्त्री पुरूष के बीच की सारी बाधाएं तोड़ देंगे। स्त्री पुरूष के बीच की बाधाएं तोड़ते ही हमारे नब्बे परसैंट बीमारियां विलीन हो जाएं। क्योंकि उन बाधाओं के कारण सारे रोग खड़े हो रहे है। हमको दिखाई नहीं पड़ता। और चक्र ऐसा है कि जब रोग खड़े होते है तो हम सोचते है और बाधाएं खड़ी करो। ताकि रोग खड़े न हो।
मैं एक गांव में था। और कुछ बड़े विचारक और संत साधु मिलकर अश्लील पोस्टर विरोधी एक सम्मेलन कर रहे थे। तो उनका ख्याल है कि अश्लील पोस्टर लगता है दीवालों पर, इसलिए लोग काम-वासना से परेशान रहते है। जबकि हालत दूसरी है लोग काम वासना से परेशान है। इसलिए पोस्टर में मजा है। यह पोस्टर कौन देखेगा? पोस्टर को देखने कौन जा रहा है।
पोस्टर को देखने वही जा रहा है, जो स्त्री पुरूष के शरीर को देख ही नहीं सका। जो शरीर के सौन्दर्य को नहीं देख सका। जो शरीर की सहजता को अनुभव नहीं कर सका। वह पोस्टर देख रहा है।
पोस्टर को देखने वही जा रहा है। जो स्त्री पुरूष के शरीर को देख ही नहीं सका। जो शरीर के सौन्दर्य को नहीं देख सका। जो शरीर की सहजता को अनुभव नहीं कर सका वह पोस्टर देख रहा है।
पोस्टर इन्हीं गुरूओं की कृपा से लग रहे है। क्योंकि ये इधर स्त्री पुरूष को मिलने झुलने नहीं देते, पास नहीं होने देते तो इसका परवर्टेड, विकृत रूप है कि काई गंदी किताब पढ़ रहा है। कोई गंदी तस्वीर देख रहा है। कोई फिल्म बना रहा है। क्योंकि आखिर यह फिल्म कोई आसमान से नहीं टपकती, लोगों की जरूरत है।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि गंदी फिल्म कोई क्यों बना रहा है? लोगों की जरूरत क्या है? यह तस्वीर जो पोस्टर लगती है। कोई ऐसे ही मुफ्त पैसा खराब करके नहीं लगता। इसका कोई उपयोग है। इसे कहीं कोई देखने को तैयार है, मांग है इसकी वह मांग कैसे पैदा हुई? वह मांग हमने पैदा की है। स्त्री पुरूष को दूर करके। वह मांग पैदा कर दी। अब वह मांग को पूरा करने जब कोई जाता है तो हमको लगता है कि बड़ी गड़बड़ हो गई। तो उसको और बाधाएं डालों। उसको जितनी वह बाधाएं डालेगा,वह नए रास्ते खोजेगा मांग के। क्योंकि मांग तो अपनी पूर्ति माँगती है।
तो मैंने उनको कहा कि अगर सच में ही चाहते हो कि पोस्टर विलीन हो जाये, तो स्त्री पुरूषों के बीच की बाधा कम करो। क्योंकि मैं नहीं देखता—आदिवासी समाज है जहां, स्त्री पुरूष सहज है, करीब-करीब नग्न–वहां कोई पोस्टर लगा है? या कोई पोस्टर में रस ले रहा है?
जब पहली दफे ईसाई मिशनरी ऐसे कबीलों में पहुँचे, जहां नग्न लोग थे। तो उनको ये भरोसा ही नहीं आया कि कोई नग्न स्त्री में भी रस ले सकता है। क्योंकि रस लेने का कोई कारण नहीं है। जब तक हम वस्त्रों में ढांके है और दीवालें ओर बाधाएं खड़ी किए है। तब तक रस पैदा होगा। रस पैदा होगा तो हम सोचते है कि—और डर पैदा हो रहा है—तो इसको रोको।
मनुष्य की अधिक उलझनें इसी भांति की है। कि जो सोचता है कि सीढ़ियां है सुलझाव की, वहीं उपद्रव है, वही बाधाएं है।
तो मैं मानता हूं कि बच्चे बड़े हों, साथ बड़े हों; लड़के और लड़कियों के बीच कोई फासला न हो; साथ देखें दौड़ें बड़े हों, साथ स्नान करें, तैरें। ताकि स्त्री पुरूष के शरीर की नैसर्गिक प्रतीति हो। और वह प्रतीति कभी भी रूग्ण न बन जाए। और उसके लिए कोई बीमार रास्ते न खोजने पड़े।
और यह बिलकुल उचित ही है। कि पुरूषों की शरीर में उत्सुकता हो। स्त्री की पुरूषों के शरीर में उत्सुकता हो। यह बिलकुल स्वाभाविक है। और इसमे कुछ भी कुरूप नहीं है और कुछ भी अशोभन नहीं है। अशोभन तो तब है जो हमने किया है। उससे अशोभन हो गई बात।
अब जिस स्त्री से मेरा प्रेम हो, उसके शरीर में मेरा रस होना स्वाभाविक है। नहीं तो प्रेम तो प्रेम भी नहीं होगा। लेकिन एक अंजान स्त्री को रास्ते में धक्का मार दूँ भीड़ में यह अशोभन है। लेकिन इसके पीछे ऋषि मुनियों का हाथ है। जिस स्त्री से मेरा प्रेम है। उसे मैं अपने करीब निकट ले लूं,उसका आलिंगन करूं, यह समझ में आने वाली बात है। इसमें कुछ बुरा नहीं है। लेकिन जिस स्त्री को मैं जानता ही नहीं, जिससे मेरा कोई लेना देना ही नहीं है। रास्ते पर मौका भीड़ में मिल जाये। और में उसको धक्का मारू। उस धक्के में जरूर कोई बीमार बात है। वह धक्का क्यों पैदा हो रहा है? वह धक्का किसी जरूरत का रूग्ण रूप है। जिससे प्रेम हो सकता है। उसको मैं कभी पास नहीं ले पाता। वह रूग्ण हो गई वृति, अब धक्का मारने में भी रस ले रहा हूं। तो भीड़ में एक धक्का ही मार कर चला गया तो भी समझो कि कुछ सुख पाया। और सुख इसमें मिल नहीं सकता; ग्लानि मिलेगी मन को, निन्दा मिलेगी अपराध का भाव पैदा होगा मन में। मैं समझूंगा कि मैं पाप कर रहा हूं। और जितना मैं समझूंगा कि मैं पाप कर रहा हूं,उतना स्त्री ओ मेरे बीच का फासला बढ़ता जाएगा। और जितना फासला बढ़ेगा, इसको मिटाने की बेहूदी कोशिशें करूंगा और यह चलता रहेगा।
स्त्री-पुरूष को निकट लाना चाहता हूं, इतने निकट कि उनको यह प्रतीति नहीं रह जानी चाहिए कि कौन स्त्री है और कौन पुरूष।
स्त्री-पुरूष होना, चौबीस घंटे का बोध नहीं होना चाहिए। वह बीमारी है, अगर इतना बोध बना रहता है तो स्त्री पुरूष दोनों को चौबीस घंटे बोध नहीं होना चाहिए। वह मिटेगा तभी जब हम बीच में फासले मिटाएंगे।
और इतने गहरे परिणाम होंगे—कि समाज की अश्लीलता, गंदा साहित्य, गंदी फिल्में बेहूदी वृतियां, वे अपने आप गिर जाएं। और एक ज्यादा स्वस्थ मनुष्य का जन्म हो। और यह जो स्वस्थ मनुष्य है इसकी मैं आशा कर सकता हूं कि यह धार्मिक हो सके। क्योंकि जो स्वस्थ ही नहीं हो पाया अभी उसके धार्मिक होने की कोई आशा मैं नहीं मानता।
तो एक तो धर्म है, जो अधर्म से भी बूरा है, अस्वस्थ धर्म। उससे तो अधर्म ठीक है। और एक धर्म है जो अधर्म से श्रेष्ठ है, और उसे मैं कहता हूं स्वस्थ धर्म। जीवन की समझ, प्रतीति, अनुभव, होश—इससे पैदा हुआ धर्म।
स्त्री-पुरूष जितने निकट होंगे, उतना ही यह उपद्रव कम होगा, शांत होगा। और अगर यह उपद्रव शांत हो जाये तो असली खोज शुरू हो सकती है। क्योंकि आदमी बिना आकर्षण के नहीं जी सकता। और अगर स्त्री पुरूष का आकर्षण शांत हो जाता है तो वे और गहरे आकर्षण की खोज में लग जाते है। बिना आकर्षण के जीना मुश्किल है। वही प्रयोजन है। और जो स्त्री-पुरूष में ही लड़ता रहा है—उसका आकर्षण तो कायम रहता है, दूसरा आकर्षण का कोई उपाय नहीं है।
परमात्मा मेरे लिए प्रकृति में ही गहरे अनुभव का नाम है।
और जिस दिन वह अनुभव होने लगता है। उसी दिन ये सारे,जिनसे हम बचना चाहते थे, इनसे हम बच जाते है। पर बिना कोई चेष्टा किए। एक तो कच्चा फल है, जिसको कोई झटका देकर तोड़ ले। और एक पका हुआ फल है जो वृक्ष से गिर जाता है। न वह वृक्ष को खबर होती है कि वह कब गिर गया। न फल को खबर होती है। कब गिर गया। न फल को लगता है कि कोई बड़ा भारी प्रयासकरना पडा। न कहीं होता है। न कहीं कुछ होता है। यह सब चुपचाप हो जाता है।
तो जीवन के अनुभव से एक वैराग्य का जन्म होता है। जिसको मैं पका हुआ फल कहता हूं। और जीवन से लड़ने से एक वैराग्य का जन्म होता है। जिसको मैं कच्चा फल कहता हूं। सब तरफ घाव छूट जाते है, और उन घावों का भरना मुश्किल है। तो मैं तो कसी ऐसे शास्त्रों के पक्ष में नहीं हूं।
मेरा तो मानना यह है कि जो भी प्रकृति से उपलब्ध है समग्र सर्वांगीण स्वीकार।
और उसी स्वीकार से रूपांतरण है। और यही रूपांतरण गहरा हो सकता है। संघर्ष में मेरा भरोसा नहीं है। और इसी बात को में आस्तित्व कहता हूं। सब त्यागियों को मैं नास्तिक कहता हूं। क्योंकि परमात्मा की सृष्टि उन्हें स्वीकार नहीं। और जिनको परमात्मा की सृष्टि स्वीकार नहीं, वे परमात्मा भी उन्हें मिल जाएगा तो स्वीकार करेंगे। मैं नहीं मानता। अस्वीकृति की उनकी आदत इतनी गहरी है कि जब वे परमात्मा को भी देखेंगे तो हजार भूले निकाल लेंगे कि इसमे यह पाप है।
शोपहार ने कहीं कहा है कि हे परमात्मा, तू तो मुझे स्वीकार है, तेरी सृष्टि स्वीकार नहीं है। लेकिन इनको परमात्मा स्वीकार है तो उसकी सृष्टि अनिवार्य रूपेण स्वीकृति हो जाय। और अगर उसकी सृष्टि स्वीकार नहीं है, तो बहुत गहरे में हम उसे भी स्वीकार नहीं कर सकते। कैसे स्वीकार करेंगे। फिर या तो हम परमात्मा से ज्यादा समझदार हो गए है। उससे ऊपर अपने को रख लिया कि हम उसमें भी चुनाव करते है।
मेरा कोई चुनाव नहीं, मैं तो मानता हूं जो प्रकट है, वह अप्रकट का ही हिस्सा है। जो दिखाई पड़ रहा है। उसके पीछे ही अदृश्य छिपा हुआ हे। थोड़ी पर्त भीतर प्रवेश करने की जरूरत है। और प्रेम जितना गहरा जाता है। इस जगत में कोई और चीज इतनी गहरी नहीं जाती। मैं छुरा मार सकता हूं। आपकी छाती में,वह इतना गहरा जाएगा जितना मेरी प्रेम आपके भीतर गहरा जाएगा। प्रेम से गहरा तो कुछ भी नहीं जाता इसको भी जो छोड़ देता है वह उथला सतह पर रह जाता है। तो मेरे मन में तो ऐसे शास्त्र अनिष्ट है। और जितने शीध्र उनसे छुटकारा हो, उतना ही अच्छा है। और ऐसे ऋषि मुनियों की चिकित्सा......मानसिक रोग है इन्हें।
ओशो
संभोग से समाधि की और
प्रवचन—6
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