संभोग से समाधि की ओर—5
संभोग: अहं-शून्यता की झलक—1
मेरे प्रिय आत्मन,
एक सुबह, अभी सूरज भी निकलन हीं था। और एक मांझी नदी के किनारे पहुंच गया था। उसका पैर किसी चीज से टकरा गया। झुककर उसने देखा। पत्थरों से भरा हुआ एक झोला पडा था। उसने अपना जाल किनारे पर रख दिया,वह सुबह के सूरज के उगने की प्रतीक्षा करने लगा। सूरज ऊग आया,वह अपना जाल फेंके और मछलियाँ पकड़े। वह जो झोला उसे पडा हुआ मिला था,जिसमें पत्थर थे। वह एक-एक पत्थर निकालकर शांत नदी में फेंकने लगा। सुबह के सन्नाटे में उन पत्थरों के गिरने की छपाक की आवाज उसे बड़ी मधुर लग रही थी। उस पत्थर से बनी लहरे उसे मुग्ध कर रही थी। वह एक-एक कर के पत्थर फेंकता रहा।
धीरे-धीरे सुबह का सूरज निकला, रोशनी हुई। तब तक उसने झोले के सारे पत्थर फेंक दिये थे। सिर्फ एक पत्थर उसके हाथ में रह गया था। सूरज की रोशनी मे देखते ही जैसे उसके ह्रदय की धड़कन बंद हो गई। सांस रूक गई। उसने जिन्हें पत्थर समझा कर फेंक दिया था। वे हीरे-जवाहरात थे। लेकिन अब तो अंतिम हाथ में बचा था, और वह पूरे झोले को फेंक चूका था। और वह रोने लगा, चिल्लाने लगा। इतनी संपदा उसे मिल गयी थी कि अनंत जन्मों के लिए काफी थी, लेकिन अंधेरे में, अंजान अपरिचित, उसने उस सारी संपदा को पत्थर समझकर फेंक दिया था।
लेकिन फिर भी वह मछुआ सौभाग्यशाली था, क्योंकि अंतिम पत्थर फेंकने से पहले सूरज निकल आया था और उसे दिखाई पड़ गया था कि उसके हाथ में हीरा है। साधारणतया सभी लोग इतने भाग्यशाली नहीं होते। जिंदगी बीत जाती है, सूरज नहीं निकलता, सुबह नहीं होती, सूरज की रोशनी नहीं आती। और सारे जीवन के हीरे हम पत्थर समझकर फेंक चुके होते है।
जीवन एक बड़ी संपदा है, लेकिन आदमी सिवाय उसे फेंकने और गंवाने के कुछ भी नहीं करता है।
जीवन क्या है, यह भी पता नहीं चल पाता और हम उसे फेंक देते है। जीवन में क्या छिपा है, कौन से राज,कौन से रहस्य, कौन सा स्वर्ग, कौन सा आनंद, कौन सी मुक्ति, उन सब का कोई भी अनुभव नहीं हो पाता और जीवन हमारे हाथ से रिक्त हो जाता है।
इन आने वाले तीन दिनों में जीवन की संपदा पर ये थोड़ी सी बातें मुझे कहानी है। लेकिन जो लोग जीवन की संपदा को पत्थर मान कर बैठे है। वे कभी आँख खोलकर देख पायेंगे कि जिन्हें उन्होंने पत्थर समझा है, वह हीरे-माणिक है, यह बहुत कठिन है। और जिन लोगो ने जीवन को पत्थर मानकर फेंकन में ही समय गंवा दिया है। अगर आज उनसे कोई कहने जाये कि जिन्हें तुम पत्थर समझकर फेंक रहे थे। वहां हीरे-मोती भी थे तो वे नाराज होंगे। क्रोध से भर जायेंगे। इसलिए नहीं कि जो बात कही गयी है वह गलत है, बल्कि इसलिए कि यह बात इस बात का स्मरण दिलाती है। कि उन्होंने बहुत सी संपदा फेंक दी।
लेकिन चाहे हमने कितनी ही संपदा फेंक दी हो, अगर एक क्षण भी जीवन का शेष है तो फिर भी हम कुछ बचा सकते है। और कुछ जान सकते है और कुछ पा सकते है। जीवन की खोज में कभी भी इतनी देर नहीं होती कि कोई आदमी निराश होने का कारण पाये।
लेकिन हमने यह मान ही लिया है—अंधेरे में, अज्ञान में कि जीवन में कुछ भी नहीं है सिवाय पत्थरों के। जो लोग ऐसा मानकर बैठ गये है, उन्होंने खोज के पहले ही हार स्वीकार कर ली है।
मैं इस हार के संबंध में, इस निराशा के संबंध के, इस मान ली गई पराजय के संबंध में सबसे पहले चेतावनी यह देना चाहता हूं के जीवन मिटटी और पत्थर नहीं है। जीवन में बहुत कुछ है। जीवन मिटटी और पत्थर के बीच बहुत कुछ छिपा है। अगर खोजने वाली आंखें हो तो जीवन से वह सीढ़ी भी निकलती है, जो परमात्मा तक पहुँचती है। इस शरीर में भी,जो देखने पर हड्डी मांस और चमड़ी से ज्यादा नहीं है। वह छिपा है, जिसका हड्डी, मांस और चमड़ी से कोई संबंध नहीं है। इस साधारण सी देह में भी जो आज जन्मती है कल मर जाती है। और मिटटी हो जाती है। उसका वास है—जो अमृत है, जो कभी जन्मता नहीं और कभी समाप्त नहीं होता है।
रूप के भीतर अरूप छिपा है और दृश्य के भीतर अदृश्य का वास है। और मृत्यु के कुहासे में अमृत की ज्योति छीपी है। मृत्यु के धुएँ में अमृत की लौ भी छिपी हुई है। वह फ्लेम वह ज्योति भी छिपी है, जिसकी की कोई मृत्यु नहीं है।
यह यात्रा कैसे हो सकती है कि धुएँ के भीतर छिपी हुई ज्योति को जान सकें, शरीर के भीतर छिपी हुई आत्मा को पहचान सकें, प्रकृति के भीतर छिपे हुए परमात्मा के दर्शन कर सकें। उस संबंध में ही तीन चरणों में मुझे बातें करनी है।
पहली बात,हमने जीवन के संबंध में ऐसे दृष्टिकोण बना लिए है, हमने जीवन के संबंध में ऐसी धारणाएं बना ली है। हमने जीवन के संबंध में ऐसा फलसफा खड़ा कर रखा है कि उस दृष्टिकोण और धारणा के कारण ही जीवन के सत्य को देखने से हम वंचित रह जाते है। हमने मान ही लिया है कि जीवन क्या है—बिना खोजें, बिना पहचाने,बिना जिज्ञासा किये, हमने जीवन के संबंध में कोई निश्चित बात ही समझ रखी है
हजारों वर्षों से हमें एक बात मंत्र की तरह पढ़ाई जाती है। जीवन आसार है, जीवन व्यर्थ हे, जीवन दु:ख है। सम्मोहन की तरह हमारे प्राणों पर यह मंत्र दोहराया गया है कि जीवन व्यर्थ है, जीवन आसार है, जीवन छोड़ने योग्य है। यह बात सुन-सुन कर धीरे-धीरे हमारे प्राणों में पत्थर की तरह मजबूत होकर बैठ गयी है। इस बात के कारण जीवन आसार दिखाई पड़ने लगा है। जीवन दुःख दिखाई पड़ने लगा है। इस बात के कारण जीवन ने सारा आनंद, सारा प्रेम,सारा सौंदर्य खो दिया है। मनुष्य एक कुरूपता बन गया है। मनुष्य एक दुःख का अड्डा बन गया है।
और जब हमने यह मान ही लिया कि जीवन व्यर्थ, आसार है, तो उसे सार्थक बनाने की सारी चेष्टा भी बंद हो गयी हो तो आश्चर्य नहीं है। अगर हमने यह मान ही लिया है कि जीवन एक कुरूपता है ताक उसके भीतर सौंदर्य की खोज कैसे हो सकती है। और अगर हमने यह मान ही लिया है कि जीवन सिर्फ छोड़ देने योग्य है, तो जिसे छोड़ ही देना है। उसे सजाना, उसे खोजना, उसे निखारना,इसकी कोई भी जरूरत नहीं है।
हम जीवन के साथ वैसा व्यवहार कर रहे है, जैसा कोई आदमी स्टेशन पर विश्रामालय के साथ व्यवहार करता है। वेटिंग रूम के साथ व्यवहार करता है। वह जानता है कि क्षण भर हम इस वेटिंग में ठहरे हुए है। क्षण भर बाद छोड़ देना है, इस वेटिंग रूम का प्रयोजन क्या है? क्या अर्थ है? वह वहां मूंगफली के छिलके भी डालता है। पान भी थूक देता है। गंदा भी करता है और सोचता है मुझे क्या प्रयोजन। क्षण भर बाद मुझे चले जाना है।
जीवन के संबंध में भी हम इसी तरह का व्यवहार करते है। जहां से हमें क्षण भर बाद चले जाना है। वहां सुन्दर और सत्य की खोज और निर्माण करने की जरूरत क्या है?
लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं, जिंदगी जरूर हमें छोड़ कर चले जाना है; लेकिन जो असली जिंदगी है, उसे हमें कभी भी छोड़ने का कोई उपाय नहीं है। हम घर छोड़ देंगे,यह स्थान छोड़ देंगे; लेकिन जो जिंदगी का सत्य है, वह सदा हमारे साथ होगा। वह हम स्वयं है। स्थान बदल जायेंगे बदल जायेंगे, लेकिन जिंदगी...जिंदगी हमारे साथ होगी। उसके बदलने का कोई उपाय नहीं है।
और सवाल यह नहीं है कि जहां हम ठहरे थे उसे हमनें सुंदर किया था, जहां हम रुके थे वहां हमने प्रीतिकर हवा पैदा की थी। जहां हम दो क्षण को ठहरे थे वहां हमने आनंद की गीत गाया था। सवाल यह नहीं है कि वहां आनंद का गीत हमने गाया था। सवाल यह है कि जिसने आनंद का गीत गया था, उसके भीतर आनंद के और बड़ी संभावनाओं के द्वार खोल लिए। जिसने उस मकान को सुंदर बनाया था। उसने और बड़े सौंदर्य को पाने की क्षमता उपलब्ध कर ली है। जिसने दो क्षण उस वेटिंग रूम में भी प्रेम के बीताये थे, उसने और बड़े पर को पाने की पात्रता अर्जित कर ली है।
हम जो करते है उसी से हम निर्मित होते है। हमारा कृत्य अंतत: हमें निर्मित करता है। हमें बनाता है। हम जो करते है, वहीं धीरे-धीरे हमारे प्राण और हमारी आत्मा का निर्माता हो जाता है। जीवन के साथ हम क्या कर रहे है,इस पर निर्भर करेगा कि हम कैसे निर्मित हो रहे है। जीवन के साथ हमारा क्या व्यवहार है, इस पर निर्भर होगा कि हमारी आत्मा किन दिशाओं में यात्रा करेगी। किन मार्गों पर जायेगी। किन नये जगत की खोज करेगी।
जीवन के साथ हमारा व्यवहार हमें निर्मित करता है—यह अगर स्मरण हो, तो शायद जीवन को आसार, व्यर्थ माने की दृष्टि हमें भ्रांत मालूम पड़ें; तो शायद हमें जीवन को दुःख पूर्ण मानने की बात गलत मालूम पड़े, तो शायद हमें जीवन से विरोध रूख अधार्मिक मालूम पड़े।
लेकिन अब तक धर्म के नाम पर जीवन का विरोध ही सिखाया गया है। सच तो यह है कि अब तक का सारा धर्म मृत्यु वादी है, जीवन वादी नहीं, उसकी दृष्टि में मृत्यु के बाद जो है, वहीं महत्वपूर्ण है, मृत्यु के पहले जो है वह महत्वपूर्ण नहीं है। अब तक के धर्म की दृष्टि में मृत्यु की पूजा है, जीवन का सम्मान नहीं। जीवन के फूलों का आदर नहीं, मृत्यु के कुम्हला गये, जा चुके, मिट गये, फूलों की क़ब्रों की , प्रशंसा और श्रद्धा है।
अब तक का सारा धर्म चिन्तन कहता है कि मृत्यु के बाद क्या है—स्वर्ग,मोक्ष, मृत्यु के पहले क्या है। उससे आज तक के धर्म को कोई संबंध नहीं रहा है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि मृत्यु के पहले जो है, अगर हम उसे ही संभालने मे असमर्थ है, तो मृत्यु के बाद जो है उसे हम संभालने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकते। मृत्यु के पहले जो है अगर वहीं व्यर्थ छूट जाता है,तो मृत्यु के बाद कभी भी सार्थकता की कोई गुंजाइश कोई पात्रता, हम अपने में पैदा नहीं करा सकेंगे। मृत्यु की तैयारी भी इस जीवन में जो आसपास है मौजूद है उस के द्वारा करनी है। मृत्यु के बाद भी अगर कोई लोक है, तो उस लोक में हमें उसी का दर्शन होगा। जो हमने जीवन में अनुभव किया है। और निर्मित किया है। लेकिन जीवन को भुला देने की,जीवन को विस्मरण कर देने की बात ही अब तक नहीं की गई।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जीवन के अतिरिक्त न कोई परमात्मा है, न हो सकता है।
मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि जीवन को साध लेना ही धर्म की साधना है और जीवन में ही परम सत्य को अनुभव कर लेना मोक्ष को उपल्बध कर लेने की पहली सीढ़ी है।
जो जीवन को ही चूक जाते है वह और सब भी चूक जायेगा,यह निश्चित है।
लेकिन अब तक का रूख उलटा रहा है। वह रूख कहता है, जीवन को छोड़ो। वह रूख कहता है जीवन को त्यागों। वह यह नहीं कहता है कि जीवन में खोजों। वह यह नहीं कहता है कि जीवन को जीने की कला सीख़ों। वह यह भी नहीं कहता है कि जीवन को जीने पर निर्भर करता है कि जीवन कैसा मालुम पड़ता है। अगर जीवन अंधकार पूर्ण मालूम पड़ता है, तो वह जीने का गलत ढंग है। यही जीवन आनंद की वर्षा भी बन सकता है। आगर जीने का सही ढंग उपलब्ध हो जाये।
धर्म जीवन की तरफ पीठ कर लेना नहीं है, जीवन की तरफ पूरी तरह आँख खोलना है।
धर्म जीवन से भागना नहीं है, जीवन को पूरा आलिंगन में ले लेना है।
धर्म है जीवन का पूरा साक्षात्कार।
यही शायद कारण है कि आज तक के धर्म में सिर्फ बूढ़े लोग ही उत्सुक रहे है। मंदिरों में जायें, चर्चों में,गिरजा घरों में, गुरु द्वारों में—और वहां वृद्ध लोग दिखाई पड़ेंगे। वहां युवा दिखाई नहीं पड़ते, वहां बच्चे दिखाई नहीं पड़ते,क्या करण है?
एक ही कारण है। अब तक का हमारा धर्म सिर्फ बूढ़े लोगों का धर्म है। उन लोगों का धर्म है, जिनकी मौत करीब आ रही है। और अब मौत से भयभीत हो गये है, मौत के बाद की चिंता के संबंध में आतुर है, और जानना चाहते है कि मौत के बाद क्या है।
जो धर्म मौत पर आधारित है, वह धर्म पूरे जीवन को कैसे प्रभावित कर सकेगा। जो धर्म मौत का चिंतन करता है, वह पृथ्वी को धार्मिक कैसे बना सकता है।
वह नहीं बना सका। पाँच हजार वर्षों की धार्मिक शिक्षा के बाद भी पृथ्वी रोज-रोज अधार्मिक होती जा रही है। मंदिर है, मसजिदें है, चर्च है, पुजारी है, पुरोहित है, सन्यासी है, लेकिन पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी है। और नहीं हो सकेगी। क्योंकि धर्म का आधार ही गलत है। धर्म का आधार जीवन नहीं है, धर्म का आधार मृत्यु है। धर्म का आधार खिलते हुए फूल नहीं है, कब्र है। जिस धर्म का आधार मृत्यु है, वह धर्म अगर जीवन के प्राणों को स्पंदित न कर पाता हो, तो इसमें आश्चर्य क्या है? जिम्मेवारी किस की है?
मैं इन तीन दिनों में जीवन के धर्म के संबंध में बात करना चाहता हूं और इसीलिए पहला सूत्र समझ लेना जरूरी है। और इस सूत्र के संबंध में आज तक छिपाने की, दबाने की, भूल जाने की चेष्टा की गयी है। लेकिन जानने और खोजने की नहीं। और उस भूलने और विस्मृत कर देने की चेष्टा के दुष्परिणाम सारे जगत में व्याप्त हो गये है।
मनुष्य के सामान्य जीवन के में केंद्रीय तत्व क्या है—परमात्मा? आत्मा? सत्य?
नहीं,मनुष्य के प्राणों में, सामान्य मनुष्य के प्राणों में,जिसने कोई खोज नहीं की, जिसने कोई यात्रा नहीं की। जिसने कोई साधना नहीं की। उसके प्राणों की गहराई में क्या है—प्रार्थना? पूजा? नहीं,बिलकुल नहीं।
अगर हम सामान्य मनुष्य के जीवन-ऊर्जा में खोज करें,उसकी जीवन शक्ति को हम खोजने जायें तो न तो वहां परमात्मा है, न वहां पूजा है, न प्रार्थना है,न ध्यान है, वहां कुछ और ही दिखाई देता है, जो दिखाई पड़ता है उसे भूलने की चेष्टा की गई है। उसे जानने और समझने की नहीं।
वहां क्या दिखाई पड़ेगा अगर हम आदमी के प्राणों को चीरे और फाड़े और वहां खोजें? आदमी को छोड़ दें,अगर आदमी से इतन जगत की भी हम खोज-बीन करें तो वहां प्राणों की गहराईयों में क्या मिलेगा? अगर हम एक पौधे की जांच-बीन करें तो क्या मिलेगा? एक पौधा क्या कर रहा है?
( क्रमश: अगले अंक में ..................देखें)
ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
गोवा लिया टैंक, बम्बई,
28—सितम्बर—1968,
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